उत्तराजिके एकादज़ो5ध्याक: ११.३
है सोम ! आप उत्तम प्रकार के श्रेष्ठ अन्न प्रदान करने के लिए प्रस्तुत हों । साहसी वीर (इन्र) जैसे वृजञसुर
को परास्त करने के लिए आगे बढ़े थे, वैसे हे ऋणों के नाशक ! आप शत्रुओं के विनाश के लिये ग्रेरित हों ॥८ ॥
१३६५. अजीजनो हि पवमान सूर्य विधारे शक्मना पयः ।
गोजीरया रंहमाणः पुरन्ध्या ॥९॥
हे दिव्य सोम ! किरणों के माध्यम से अंतरिक्ष और पृथ्वीलोक मे जीवन को गतिशील बनाने वाले, आपने
अपनी क्षमता से जल को धारण करने वाले आकाश से ऊपर सूर्य को उतनः किया ॥९ ॥
[अन्तरिक्ष यात्रियों ने यह तथ्य प्रकट किया है कि जल अंश की उपस्थिति के कारण ही आकाश नीला दिखता
है, निश्चित ऊँचाई के बाद जलांश का प्रभाव न रहने से नीलापर समाप्त हो जाता है । सूर्यादि ग्रह उसी क्षेत्र में स्वापित हैं ।]
१३६६.अनु हि त्वा सुतं सोम मदामसि महे समर्यराज्ये । वाजँ अभि पवमान प्र गाहसे॥
हे सोमदेव ! श्रेष्ठ पुरुषों के इस महान् राज्य में, आपके अनुगामी होकर हम सुख से रहते है । आप शवित
से सम्पन होने वाले कार्य करते हैं ॥१० ॥
१३६७. परि प्र धन्वेन्द्राय सोम स्वादुर्मित्राय पृष्णे भगाय ॥११॥
हे सोमदेव ! आनन्द प्रदायक आप मित्र पूषा, भग और इन्दर आदि देवताओं के लिए प्रवाहित हों ॥११ ॥
१३६८. एवामृताय महे क्षयाय स शुक्रो अर्थ दिव्य: पीयूष: ॥१२ ॥
हे सोम !दिव्य लोक में देवों के सेवनार्थ प्रकट हुए आप, अमरत्व तक पहुँचने के लिए गतिशील हों ॥१२ ॥
१३६९.इन््रस्ते सोम सुतस्य पेयात्क्रत्वे दक्षाय विश्च च देवा: ॥१३ ॥
हे सोमदेव ! श्रेष्ठ ज्ञान एवं बल प्राप्त करने के इच्छुक इन्द्रदेव सहित सभी देवगण निष्यन आपके इस
शोधित सोमरस का पान करें ॥१३ ॥
॥इति द्वितीय: खण्ड: ॥
॥ तृतीयः खण्ड: ॥
१३७०. सूर्यस्येव रश्मयो द्रावयित्नवो मत्सरासः प्रसुतः साकमीरते ।
तन्तुं ततं परि सर्गासि आशवो नेन्द्रादृते पवते धाम किचन ॥९॥
सूर्य रश्मियों के सदृश, प्ररणादायी, आनन्दवर्धक, सोमधाराएँ शोधक छने से गिरती हुई फैलती दै । वे
इन्दरदेव के अतिरिक्त किसी और को प्राप्त नही होतीं ॥१ ॥
१३७९१. उपो मतिः पृच्यते सिच्यते मधु मनदराजनी चोदते अन्तरा सनि ।
पवमानः सन्तनिः सुन्वतापिव मधुमान् द्रप्सः परि वारमर्घति ॥२ ॥
मधुर एवं आनन्ददायक सोमरस, स्तुत्य इन्द्रदेव को प्रदान किया जाता है । यजमानों द्वारा निकाला गुया
यह मधुर सोमरस बार-बार शुद्ध किया जाता है ॥२ ॥
१३७२. उक्षा मिमे प्रति यन्ति धेनवो देवस्य देवीरुप यन्ति निष्कृतम् ।
वारमव्ययमत्कं न निक्तं परि सोमो अव्यत ॥३ ॥
शब्द करते हुए प्रकाशमान सोम की, दिव्य वाणी से स्तुति की जाती है और वह सोम शुद्ध होता हुआ दिव्य
गुणों को धारण कर लेता है ॥३ ॥