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म्रथ्यमपर्ण, प्रधम भाग ]

* प्रासाद, उ्चान आदिके निर्माणमें भूमि-परीक्षण «

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गतवात्पै भूमि मध्यम तथा सात रातवाली भूमि कनिष्ठ है।

कनिष्ठ भूमिको सर्वथा त्याग देना चाहिये ।) श्वेत, लाल, पीली

और काली--इन चार वर्णोवाली पृथ्वी क्रमदाः ब्राह्मणादि

चारों वणेकि लिये प्रशैसित मानी गयी है । प्रासाद आदिके

निर्माणमें पहले भूषिकी परीक्षा कर देनी चाहिये । उसकी एक

विधि इस प्रकार है--अरजिमात्र (छंगभग एक हाथ लंबा)

विल्ककाष्ठक्तये बारह अंगुलके गड़ेमें गाड़कर, उसके भूमिसे

ऊपस्वाले भागमें चारों ओर चार! रूकंड़ियाँ लगाकर उन्हें

ऊनसे लपेटकर तेलसे भिगो ले। इन्हें चार बत्तियोंके रूपमें

दीपककी भाँति प्रज्वल्ति करे। पूर्व तथा पश्चिमकी ओर बत्ती

जलती रहे तो शुभ तथा दक्षिण एवं उत्तकी ओरकी जलती

रहे तो अशुभ माना गया है। यदि चारो बत्तियाँ युझ जायें या

मन्द हो जायें तो विपत्तिकारक है'। इस प्रकार सम्यक्‌-रूपसे

भूमिकी परीक्षाकर उस भृमिको सूत्रसे आवेशित तथा कीलित्त

कर वास्तुको पूजन करें। तदनन्तर वास्तुबलि देकर भूमि

स्तोटनेयाले खनित्रकी भ पूजा करे । ास्तुके मध्यमे एक

हाथके चैमानेमे भूमिको घी, मधु, स्वर्णमिश्रित जल तथा

सल्मिश्रित जलसे ईज्ानाभिमुख होकर रीष दे, फिर खोदते

समय 'आ ब्रह्मन्‌" इस मन्त्रका उच्चारण करे। जो

वास्तुदेवताका बिना पृजन किये प्रासाद, तड़ाग आदिका

निर्माण करता है, यमराज उसका आधा पुण्य नष्ट कर देते रै ।

अतः प्रासाद, आगम, उद्यान, महाकृप, गृहनिर्माणमें

पहले वास्तुदेवताक्य विधिपूर्वकः पूजन करना चाहिये। जहाँ

स्तम्भकी आवज्यकता हो वहाँ साल, सैर, पत्थस, केसर, बेल

तथा यकुछ--इन वुक्षौसे निर्मित यूष कलियुगमें प्रशस्त माने

गये है । यदि यापी, कुप आदिक विधिहीन खनन एवे आम्र

आदि वृक्षका विधिहीन रोपण करे, तो उसे कुछ भी फल प्राप्त

जहीं होता, अपितु केवल अधोगति ही मिलती है। नदीके

किनारे,इमशान तथा अपने घरसे दक्षिणकी ओर तुलसीवक्षका

रोपण न करे, अन्यथा यप-यातना भोगनी पड़ती है। विधि-

पूर्वक ब॒क्षोंका रोपण करनेसे उसके पत्र, पुष्प तथा फलके

रज-रेणुओं आदिका समागम उसके पितरोंको प्रतिदिन तृप

करता है।

जो व्यक्ति छाया, फूल और फल देनेवाले वृश्षॉक््र रोपण

करता है या मार्गम तथा देवालये वृक्षक छगाता है, वह

अपने पितरोंको बड़े-बड़े पापोंसे तारता है और रोपणकर्ता इस

मनुष्य-लछोकमे पहती कीर्ति तथा शुभ परिणामक प्राप्त करता

है तथा अतीते और अनागत पितरोंको स्वर्गमें जाकर भी तारता

ही रहता है। अतेः द्विज़गण ! वुक्ष लगाना अत्यन्त शुभ-

दायक है। जिसको पुत्र नहीं है, उसके लिये वृक्ष ही पुत्र हैं,

वृक्षारोषणकर्तिकि ल्जैकिक-पारल्मैकिक कर्म वक्ष हो करते

रहते हैं तथा स्वर्ग प्रदान करते हैं। यदि कोई अश्वत्थ वृक्षका

आरोपण करता है तो यही उसके स्थ्यि एक त्ख पुत्रोंसे भी

बढ़कर है। अतएव अपनी सद्रतिके ल्विये कम-से-कम एक

या दो या तीन अश्वत्थ-वक्ष लगाना ही चाहिये । हजार, लाख,

करोड जो भी मुक्तिके साधन हैं, उनमें एक अधत्थ-वृक्ष

लगानेकी बरावरी नहीं कर सकते ।

अश्ञोक-वुक्ष लगानेसे कभी दोक नहीं होता, प्रक्ष

(पाकड़) वृक्ष उत्तम खो प्रदान करवाता है, ज्ञानरूपी फल भी

देता है । बिल्ववृक्ष दीर्घ आयुष्य प्रदान करता है। जापुनका

वृक्ष धन देता है, तेंट्का वक्ष कुलयुद्धि कराता है। दाडिम

(अनार) का युक्ष स्त्री-सुंख प्राप्त कराता है। वकुल

पाप-नाञक, चैजुल (तिनिश) बल-बुद्धिप्रद है। धातकी

(घव) स्वर्ग प्रदान करता है। वरवृश्च मोक्षप्रट, आम्रवृक्ष

अभीष्ट कामनाप्रद और गुवाक (सुपारी) कः वृक्ष सिद्धिप्रद

है। वल्वल, मधूक (महुआ) तथा अर्जुन-युक्ष सब प्रकारका

अन्न प्रदान करता है। कदम्य-यक्षसे विपुल लक्ष्मीकी प्राप्त

होती है। तितिडी (इमली) का वृक्ष धर्मदूषक माना गया है।

गृहरब्रभूषण आदि ग्रश्थोंपें हुआ है । मत्स्य, अध्रि तथा विष्णुधर्मोत्तरपुयणमें भी इसकी चर्चा आयी है। इस विद्याका संक्षित उल्लेख ऋग्वेद, झतपथ

व्राह्मण, श्रोतृ एवं मनुस्मुति ३।८९ दमे भो है। खास्तुविष्चाक मुख्य प्रवर्तकः एवं ता विश्वकर्मत और मय टानव हैं।

२. भ बहान्‌ चाप्ये बद्यवनंसौ ज्ययतामा राष्ट्र राजन्यः शुर इपत्योअतिव्याथी महारथौ जायतौ दरौ थेनुवॉढानड्वाताशु; सिः पुरथियोंपा

जिए्णू रथेष्ठाः सभेषो चुवास्य यकाङ्नस्य वीरो जायतो विकामे-निकामे = पर्जन्यो वर्षतु फर्यस्यो न न ओषधय: पच्यच्तां केगक्षेमो नः फल्पतम्‌ ॥

(यज्‌ २२। २२१

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