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२०६

श्रीचिष्णुपुण

[ अर १४

पूर्वाः क्रिया मध्यमाश्च तथा चैवोत्तराः क्रियाः ।

त्रिप्रकाराः क्रियाः सर्वास्ता भेदे शृणु परे ॥ ३५

आदाहवार्यायुधादिस्पत्ाशिन्तास्तु या: क्रियाः ।

ताः पूर्वा मध्या पासि मास्येकोदिप्टसंज्ञिता: ॥ ३६

भरेते पितृत्वमापन्ने सपिण्डीकरणादनु ।

क्रियन्ते या: क्रिया: पित्रयाः प्रोच्यन्ते ता नृपोत्तराः ॥ ३७

पितृमातृसपि्डैस्तु समानसलिलैस्तथा ।

सङ्कतान्तगतैरवापि राज्ञा तद्धनहारिणा । ३८

पूर्वाः क्रियाश्च कर्तव्याः पुत्रादैरेव चोत्तराः ।

दौहित्ैवां नृपभ्ेष्ठ॒ कार्यास्तत्तनयैस्तथा ॥ ३९

मृताहनि च कर्तव्याः स्ीणामण्युत्तराः क्रियाः ।

श्रतिसंवत्सरं राजन्नेकोहिष्टविधानत: ॥ ४०

तस्मादुत्तरसंज्ञाया: क्रियास्ताः श्रृणु पार्थिव ।

यथा यथा च कर्तव्या विधिना येन चानघ ॥ ४९

सम्पूर्ण प्रेत-कर्म तीन भ्रकारके है--पूर्वकर्म,

मध्यमकर्म तथा उत्तरकर्म । इनके पृथक्‌-पृथक्‌ लक्षण

सुनो ॥ ३५॥ दाहसे लेकर जल और शस आदिके

स्पर्डपर्यन्त जितने कर्म हैं उनको पूर्वकर्म कहते हैं तथा

प्रत्येक मासमें जो एकोदिष्ट आद्ध किया जाता है वह

मध्यमकर्म कहलाता है॥ ३६॥ और हे नृप ¦ सपिण्डी-

करणके पश्चात्‌ मृतक व्यक्तिके पितृत्वको प्राप्त हो जानेपर

जो पितृकर्म किये जाते हैं वे उत्तरकर्म कहते हैं ॥ ३७ ॥

माता, पिता, सपिष्ड, समानोदक, समूहके लोग अथवा

उसके धनका अधिकारी राजा पूर्वकर्म कर सकते हैं; कितु

उत्तरकर्म केबल पुत्र, दौहित्र आदि अथवा उनकी

सन्तानको 'ही करना चाहिये।॥ ३८-३९॥ है राजन्‌ !

प्रतिवर्ष मरण-दिनपर सिर्योका भी उत्तरकर्म एकोदिष्ट

श्राद्धकी विधिसे अचदय करना चाहिये ॥ ४० ॥ अतः हे

अनघ ! उन उत्तरक्रियाऑय्मे शिस-जिसको जिस-जिस

बिधिसे करना चाहिये, वह सुनो ॥ ४१ ॥

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इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीर्येऽदो त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

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चौदह॒वाँ अध्याय

श्राद्ध-प्रशंसा, श्राद्धे पात्रापात्रका विचार

ओव उवाच और्य बोले--हे राजन्‌ ' श्रद्धासहित श्राद्धकर्म

बहो लरुदनास यपूर्थाश्रिवसुमामतान..। करनेसे मनुष्य ब्रह्मा, इन्द्र, रुदर, अश्विनीकुमार, सूर्य, अग्नि,

ब्रह्मेत्ररद्रनासत्यसूर्याभरिव वसुगण, मरुद्रण, विश्वेदेव, पितृगण, पक्ष, मनुष्य, पशु,

१०००८१० मनुजान्पदयून्‌ ॥ ९ सरीसृप, ऋषिगण तथा भूतगण आदि सम्भूर्ण जगत्को

सरीसुपानृषिगणान्यच्चान्यद्धूतसंक्ितम्‌ । प्रसन्न कर देता चै ॥ १-२ ॥ हे नरेधर ! प्रत्येक मासके

श्राद्ध श्रद्धान्वितः कुर्बन्प्रीणयत्यस्किलिं जगत्‌ ॥ २

मासि मास्यसिते पक्षे पश्चदश्यां नरेश्वर ।

तथाष्टकासु कुर्वीति काम्यान्कात्काञ्छरणुश्ठमे ॥ ३

श्राद्धाहमागत॑ द्रव्यं विकिष्टपथ वा द्विजम्‌ ।

श्राद्ध कुर्वीति विज्ञाय व्यतीपातेऽयने तथा ॥ ४

विषुवे चापि सम्प्राप्ते ग्रहणे इािसूर्ययोः ।

समस्तेनैव भूपाल रािध्क च गच्छति ॥ ५

नक्षत्रप्रहपीडासु दुष्टस्वप्रावलोकने ।

इच्छाश्राद्धानि कुर्वति. नवसस्यागमे तथा ॥ ६

कृष्णपक्षकी पशदज्ञी (अमावास्या) और अष्टका (हेपन्त

और विदिर ऋतुओंके चार महीनकी झुक्मष्टमियों) पर

श्राद्ध करे । [यह नित्यश्राद्धकाल है] अब काम्यश्राद्धका

काल बताता हूँ, श्रवण करो ॥ ३ ॥

जिस समय श्राद्धयोग्य पदार्थं या किसी निशिष्ट

ब्राह्मणको घरमें आया जाने अथवा जब उत्तरायण या

दक्षिणायनका आरम्भ या व्यतीपात हो तन काम्यश्राद्धका

अनुष्ठान करे ॥४॥ विषुवसंक्रात्तिपर, सूर्य

चन्द्रगरहणपर, सूर्यके प्रत्येक राशिमें प्रवेश करते समय

नक्षत्र अथवा ग्रहकी पीडा होनेपर, दुःस्वप्न देखनेपर और

घरमें नवीन अन्न आनेपर भी काम्यश्राद्ध करें ॥ ५-६ ॥

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