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२०६६

» पुराणं परम॑ पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम्‌ +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू

शमी-वृक्ष रोग-नाशक है। केशरसे दात्रुओंका विनाश होता

है। श्वेत बट धनप्रदाता, पनस (कटहल) वृक्ष मन्द

बुद्धिकारक है। मर्कटी (कैवाच) एवं कदम-वृक्षके लगानेसे

संततिका क्षय होता है।

आऔशम, अर्जुन, जयन्तो. करवीर, बेल तथा पत्म्नश-

वृक्षोके आरोपणसे स्वर्गको प्राप्ति होती है। विधिपूर्वक वृक्षका

रोपण करनेसे स्वर्ग-सुख प्राप्त होता है और रोपणकर्ताके तीन

जनके पाप नष्ट हो जाते हैं। सौ यृक्षोक्रा रोपण करनेवात्तर

ब्रह्मा-रूप और हजार वृक्षोंका रोपण करनेवात्पर विष्णुरूप चन

जाता है। वुक्षके आरोपणे वैज्ञास्र मास श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ

अशुभ है। आषाढ़, श्रावण तथा भाद्रपद ये भी श्रेष्ठ हैं।

अश्विन, कार्तिके वृक्ष छगानेसे विनाद या क्षय होता है।

शेत तुलसो प्रशस्त मानी गयी है। अश्वत्थ, बटवृक्ष और

श्रीवृक्षका छेटन करनेयाला व्यक्ति ब्रह्मघाती कहलाता है।

वृक्षच्छेदी व्यक्ति मूक और सैकड़ों व्याधि युक्त होता है ।

तितिड़ीके बोजोंको इश्षुदण्डसे पीसकर उसे जरमें मित्मकर

सोचनेसे अशोकको तथा नारियलके जर एवं दाहद-जलसे

सींचनेसे आम्रवृक्षकी वृद्धि होती है। अश्वत्थ-वृक्षके मूलसे

दस हाथ चारों ओरका क्षेत्र पवित्र पुरुषोत्तम क्षेत्र माना गया

है और उसको छाया जहाँत़क पहुँचती है तथा अश्वत्थ-वृक्षके

संसर्गसे बहनेवात््र जल जहाँतक पहुँचता है, वह क्षेत्र गङ्गाके

समान पवित्र माना गया है।

सूतजी पुनः बोले--विप्रश्रेष्ठ ! तान्क्रिक पद्धतिके

अनुसार सभी प्रतिष्ठादि कायोपि शुद्ध दिन ही लेना चाहिये।

वृक्षक उच्चानमें कुआँ अवश्य बनवाना चाहिये । तुलसी-वबनमें

कोई याग नहीं करना चाहिये । तात, बड़े बाग तथा देवस्थानके

मध्य सेतु नहीं बनवाना चाहिये। परंतु देवस्थानमें तडाग

बनवाना चाहिये। शिवलिद्गकी प्रतिष्ठामें अन्य देवोंको स्थापना

नहों करनी चाहिये। इसमें देश-काल (और शैवागमों) की

मर्यादाके अनुसार आचरण करना चाहिये। उनके विपरीत

आचरण करनेपर आयुका हास होता है। द्विजगण ! तालाब,

पुष्करिणी तथा उद्यान आदिका जो परिमाण बताया गया हो,

यदि उससे कय चैयानेपर ये बनाये जायें तो दोष है, कितु दस

हाथके परिणाममें हों तो कोई दोष नहीं है। सदि ये दो हजार

हाथोंसे अधिक प्रमाणमें बनाये गये हों तो उनकी प्रतिष्ठा

विधिपूर्वक अवश्य करनी चाहिये। (अध्याय १०-११)

देव-प्रतिमा-निर्माण-विधि

सूतजी बोले ब्राह्मो ! अब मै प्रतिमाका

झाख्नसम्मत लक्षण कहता हूं । उत्तम लक्षणोंसे रहित प्रतिपाका

पूजन नहो करना चाहिये। पाषाण, काष्ठ, मृत्तिका, रत्न, ताप्र

एवं अन्य धातु-इनमेंसे किसीकी भी प्रतिमा बनायी जा

सकती है । उनके पूजनसे सभी अभीष्ट फल प्राप्त होते हैं।

मन्दिस्के माफ्के अनुसार शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न प्रतिमा

बनवानौ चाहिये। परमे आर अल्लुल्से अधिक ऊँची मूर्तिका

पूजन नहीं करना चाहिये । देवालयके द्वारकी जो ऊँचाई हो उसे

आठ भागोंमें विभक्त कर तीन भागके मापमें पिण्डिका तथा दो

भागके मापमें देव-प्रतिमा बनाये । चौरासी अङ्गुल (साढ़े तीन

हाथ) कौ प्रतिमा वृद्धि करनेवाल्मे होती है । प्रतिमाके मुखकी

लंबाई बारह अङ्गुल होनी चाहिये। मुखके तीन भागके

प्रमाणमें चिबुक, छलाट तथा नासिक्य होनी चाहिये।

नासिकाके बराबर ही कान और ग्रीवा बनानी चाहिये । नेत्र दो

अड्जुल-प्रमाणके बनाने चहिये । नेत्रके मानके तीसरे भागमें

आँखकी तारिक बनानी चहिये ¦ तारिकाके तृतीय भागमें

सुन्दर दृष्टि बनानी चाहिये। लस्खट, मस्तक तथा ग्रीवा--ये

तीनों बराबर मापके हों । सिरका विस्तार बत्तीस अङ्गुल होना

चाहिये। नासिका, मुख्य और प्रोवासे हृदय एक सीधमें होना

चाहिये। मूर्तिकी जितनी ऊँचाई हो उसके आधेमें कटि-प्रदेश

बनाना चाहिये । दोनों बाहु, जंघा तथा ऊर परस्पर समान हों ।

टखने चार अङ्गुल ऊँचे बनाने चाहिये। पैरके अँगूठे तीन

१-मत्ख्यपुणाणमें प्रतिमा-निर्माणके किये निम्न वस्तुऑको आह बतस्पया है---

स्रौव्ों राज़तों कापि ताप्री सत्रमयों तथा । कौली दास्मयी चपि ल्तेहसीसमयी तथा ॥

रोतिकाघातुयुक्ता वा ताप्रकोस्पमाथी तथा । शुभदास्मयी चापि देखता प्रदास्यते ॥ (२५८ ¦ २०-२६)

सवर्ण, ची. तक, र, पत्थर, देवदारु, समेहा-सोद, पीतल और कौसा-मिश्रित अथवा शुभ काष्टॉकी बनी हुई देवफ्रतिमा प्रास्त पानो गयो है ।

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