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भवनोंकी पङ्कियां हैं, जिनकी आभासे उसकी

रमणीयता बहुत अधिक बढ़ गयी है।

यह पुरी अनेक प्रकारके यन्त्रो, प्रकाशके

साधनों तथा अन्य आवश्यक उपकरणोंसे भी

परिपूर्ण है। देवताओं, ऋषियों और धर्मपर दृष्टि

रखनेवाले मनुष्योंक लिये यहाँ पृथक्‌-पृथक्‌

निवास बने हैं। यहाँके गोपुर ऐसे प्रकाशमान हैं,

मानो वे शरद्‌-ऋतुके मेष ही हों। यहाँ पुण्यात्मा

मनुष्योंका इन्हीं दरवाजोंसे प्रवेश होता है। अग्नि

एवं धूपके यहाँ सभी दोष शान्त हो जाते हैं, पर

इस पुरीके दक्षिणका द्वार अत्यन्त भयंकर एवं

लौहमय है, जो आतपादिसे सदा संतप्त रहता है।

जो पापमें रत हैं, दूसरोंसे शत्रुता रखते हैं, मांस

खाते हैं तथा दूषित स्वभाववाले हैं, उन महान्‌

पापियोंके लिये 'औदुम्बर', 'अवीचिमान्‌' तथा

"उच्चावच ' नामकी खाइयाँ बनी हैं। यमपुरीके

पश्चिम फाटकके पास तो आगकी लपे निरन्तर

उठती रहती हैं। पापी जीवोंका इसी मार्गसे प्रवेश

होता है।

उस परम रमणीय पुरीमें एक ओर सर्वोत्कृष्ट

सभाभवनका भी निर्माण हुआ है, जिसमें सब

प्रकारके रज्ञोंका उपयोग हुआ है। धार्मिक और

सत्यवादी व्यक्तिर्योसे उसके सभी स्थान भर गये

हैं। जिन्होंने क्रोध और लोभपर विजय प्राप्त कर

ली है तथा जो वीतराग एवं तपस्वी हैं--बह सभा

ऐसे धर्मात्मा-महात्माओंसे भरी रहती है। इस

सभामें प्रजापति-मनु, मुनिवर व्यास, अत्रि,

औद्यलकि, असीम पराक्रमी महर्षि आपस्तम्ब,

वृहस्पति, शुक्राचार्य, गौतम, महातपा शङ्ख, लिखित,

अङ्गिरा मुनि, भृगु, पुलस्त्य तथा पुलह-जैसे ऋषि-

मुनि-महाराज भी विराजते है । इनके अतिरिक्त भी

धर्मके प्रपाटर्कोका समुदाय वहाँ विचार करता है ।

* संक्षिप्त श्रीवराहपुराण *

[ अध्याय १९५--१९७

द्विजबरो ! यमराजके पार्श्वर्ती अनेक ऐसे

ऋषि हैं, जो छन्दःशास्त्र, शिक्षा, सामवेदका पाठ

करते रहते हैं तथा धातुवाद, वेदवाद और

निरुक्तवाद करनेवालोंकी भी कमी नहीं है।

विप्रो! धर्मराजके भवनपर उत्तम कथाओंका

प्रवचन करनेवाले बहुत-से ऋषियों और पितरोंको

भी मैंने देखा है।

ऋषियो । वहाँ एक कल्याणमयी देवीका भी

मुझे दर्शन हुआ है, जो मानो सभी तेजोंकी एकत्र

राशि-सी है। स्वयं यमराज दिव्य गन्धों और

अनुलेपनोंसे उसकी पूजा करते हैं। समस्त संसारका

उद्धव-पालन-संहार उसीके हाथोंमें है। विश्वको

गतियोंमें उसे ही सर्वोत्तम गति कहते हैं। विज्ञ

पुरुषोंका कथन है कि किसी भी कर्तव्य-साधनमें

इतनी शक्ति नहीं है, जो उसका सामना कर सके।

जिससे समस्त प्राणी त्रस्त हो जाते हैं, वह काल

भी वहाँ मूर्तरूपमें विराजमान है। वह काल

प्रकृतिका सहयोग पाकर अत्यन्त भयंकर, क्रोधी

तथा दुर्विनीत बन जाता है। उसमें अथाह बल एवं

तेज है। बह न कभी बूढ़ा होता है और न उसकी

सत्ता ही समाप्त होती है। उसका कोई तिरस्कार

नहीं कर सकता। मैंने देखा है कि दिव्य चन्दन

तथा अनुलेपन उसकी भी शोभा बढ़ा रहे थे।

उसके सहवासियोंमें कुछ व्यक्ति ऐसे थे, जो गीत

गाते, हँसते और सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्साहित

करनेमें उद्यत थे। उन्हें कालका रहस्य ज्ञात था

और उसकी सम्मतिके वे समर्थक थे।

धर्मराजकौ पुरीमें कूष्माण्ड, यातुधान तथा

मांसभक्षी राक्षसोके भी अनेक समूह है । किसीके

एक पैर, किसीके दो पैर, किसीके तीन पैर तथा

किसीके अनेक चैर ह । वहाँ एक जाहु, दो बाहु,

तीन बाहु एवं छोटे-बड़े कान, हाथ-पैरवाले भी

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