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आदित्यवार ब्रत कथन | [ ३६१

तदाराध्य पुमात्‌ विप्र प्राप्नोतिकूशलं सदा ।

तस्मादादित्यवारेण सदा नक्त।शनो भवेत्‌ ।३

यदा हस्तेन संयुक्तमादित्यस्य च -बासरम्‌ ।

तदा शनिदिने ,कुर्य्यादेकभुक्त: विमत्सरः ।४

नक्तमादित्यवारेण भोजयित्वा द्विजोत्तमान्‌ ।

पत्रद्रादशसयुक्तं रक्तचन्दनपंकजमर्‌ ।५

विलिख्य विन्यसेत्सूय्ये नमस्कारेण पूर्वत: ।

दिवाकरं तथाम्नेय विवस्वन्तमतः परम्‌ ।६

भगन्तु नेऋ ते देव वरुणं पश्चिमे दले ।

महेन्द्रमनिले तद्वदादित्यञ्च तथोत्तरे ।७

देववि नारदजी ने कहा-हे नन्दीण ! जो भी १रुषों को आरोग्य के

करने वाला हो और जो अनन्त फलों का प्रदान करने वाला हो तथा

जो मनुष्यों को शान्ति के लिए हो उसी ब्रत को कृपा करके किए ।

॥१। नन्दिकेश्वर ने कहा---जो “विश्वात्मा का ब्रह्मा सनातन परम धाम

हैं बह सूर्य-अग्नि और चन्द्र के रूप से इस जगत्‌ में तीन प्रकार का

स्थित है। हे उसकी आराधना करके पुरुष सदा कुशल की प्राप्ति

किया करता है | इसीलिए पदा आदित्यके चारके दिन अर्थात्‌ रविवार

को रात्रि में ही अशनन्‍क रने वाला होना चाहिए ।२-३। जिस समय में

हस्त से युक्त सूयं का बार होवे उस समय में शनिवारके दिन मत्सरता

से रहित रहकर एक बार ही भोजन कराना चाहिए ।४। र्रिवार के

दिन में रात्रि के समय में द्विजों को भोजन कराकर प्रश्ञों से रक्त चन्दन

केल्पंक से बारह से संयुक्त लिखकर सूर्य का विन्यास करे । नमस्कार

से 'पृवं मे दिवाकर को विन्यस्त करना चरना चाहिए "दिवाकर नम:'

->ध्यह उच्चारण करते हुए ही विन्यास करे । इसके उपरान्त आग्नेय

दिशा मे विनस्वाम्‌ को-नैऋ त्य मं भग को-पश्चिम दल में वरुण देव

की-अनिल कोण में सहेन्द्र को तथा उसी प्रकार से उत्तर दिशा म्में

आदित्य को विन्यस्त करना जाहिए । ५-७।

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