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काण्ड २० सूक्त ९२ ७७

५५९०. सत्यामाशिषं कृणुता वयोधै कीरिं चिद्धयवथ स्वेभिरेवैः ।

पथा मृधो अप भवन्तु विश्वास्तद्‌ रोदसी शृणुतं विश्वमिन्वे ॥११ ॥

हे देवगण ! अन्न प्राप्ति के निमित्त की गई हमारी प्रार्थाओं को आप सफलता प्रदान करें आप अपने

आश्रय से हम साधको का संरक्षण करे और हमारी सभी प्रकार की विषदाओं का निवारण करें । सम्पूर्ण विश्च को

हर्षित करने वाली हे चावा- पृथिवी ! आप दोनों हमारे निवेदन के अभिप्राय को समझें ॥११ ॥

५५९१. इनदरो महवा महतो अर्णवस्य वि मूर्धानमभिनदर्बुदस्य ।

अहन्नहिमरिणात्‌ सप्त सिन्धून्‌ देवेद्यांवापृथिवी प्रावतं नः ॥१२ ॥

सर्वप्रथम बृहस्पतिदेव ने विशाल जल भण्डार रूप मेघो के सिर को छिन्न- भिन्न किया जल के अवरोधक

शत्रुओं को विनष्ट किया ।सप्तथाराओं को प्रवाहित एवं संयुक्त किया । रे द्यावा- पृथिवी ! आप देवताओं के साथ

आगमन करके हारा संरक्षण करें ॥१२ ॥

[ इस सूक्त पे वृहस्पतिदेव हारा अवरो, जमु का उच्छेदर करके गौओं को प्राप्त करने का वर्णन दै । यृहस्पतिदेव

प्रज्ञा, कान्‌ वाणी के अथिपति हैं। मेधा प्रयोग से पदार्थों में छिपी प्रकाश किरणे अथवा प्रकृति में छिपे ज्ञान सुष्रों को प्रकट करने

का आलंकारिक वर्णन इस सूक्त में है। वृहस्पतिदेव उच्वाकाश म भूमण्डल में तवा मानवीय काया में सभी जगह प्रकारात्तर से

क्रियाशोल रहते हैं । वैदिक मर विभित्र सन्दर में प्रयुक्त होते हैं। ]

[ सूक्त-९२ ]

[ ऋषि- प्रियमेध, १-३ अयास्य, १६-२१ पुरुहन्मा । देवता- इन्द्र, ८ विश्वदेवा, वरुण । छन्द- गायत्री,

४-७, ९-१२ अनुष्टुप्‌, ८, १३ पंक्ति १४-१५ पथ्यावृहती, १६-२१ प्रगाथ ।]

५५९२. अभि प्र गोपतिं गिरेन्द्रमर्च यथा विदे । सूनुं सत्यस्य सत्पतिम्‌ ॥१ ॥

हे याजको ! गोपालक, सत्यनिष्ठ, सज्जनों के संरक्षक इन्द्रदेव कौ मन्रोच्वारण सहित प्रार्थना करें, जिससे

उनकी शक्तियों का आभास हो सके ॥१ ॥

५५९३. आ हरयः ससृज़िरे5रुषीरधि बर्हिषि । यत्राभि संनवामहे ॥

जिन इन्द्रदेव की हम अपने यज्ञ मण्डप में प्रार्थना करते हैं, उनको उत्तम अश्र यज्ञशाला की ओर ते आएं ॥२ ॥

५५९४.इन्द्राय गाव आशिरं दुदुल्ढे वस्रिणे मधु । यत्‌ सीमुपह्वरे विदत्‌

जब यज्ञस्थल के समोप ही इन्द्रदेव मधुर रस का पान करते हैं, तव गौं वद्रहस्त इन्द्रदेव के (पान करने के)

लिए मधुर दुग्ध प्रदान करतौ हैं ॥३ ॥

५५९५, उद्‌ यद्‌ ब्रध्नस्य विष्टपं गृहमिन्द्रश्च गन्वहि ।

मध्वः पीत्वा सचेवहि त्रिः सप्त सख्युः पदे ॥४॥

जब हमने हन्रदेव के साध सूर्यलोक में गमने किया, तब अपने सखा उन इद्धदेव के साथ मधुर सोमपान

करके हम त्रिसप्त स्थानों पर उनसे संयुक्त हुए ।

[ इस सूक्त के ऋषि प्रियपेध (इनदर को प्रिय मेथा या प्रिययज्ञ) हैं। इर पदार्थ कणों को तीनों आयामों या लोको के सातों

प्रवाहो में संगठित करते है । उन ध्रपी के साथ मेथा या यज्ञीय भाव का संयोग होने से सृष्टिचक्र सुचारु रूप से चलता है। ]

५५९६. अर्चत प्रार्चत प्रियमेधासो अर्चत । अर्चन्तु पुत्रका उत पुरं न धृष्ण्वर्चत ॥५ ॥

हे प्रियमेध के वंशज मनुष्यो ! यज्ञ-प्रिय, सन्तान एवं साधकों कौ कामना को पूर्ण करने वाले तथा शत्रुओं को

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