७८ अथर्ववेद संहिता घाग-२
पराजित करने वाले इन्द्रदेव का आप सभी (श्रद्धापूरित होकर) सम्मान करें ॥५ ॥
इस (अगली) ऋचा को अधिकांश टीकाकारों ने वुद्ध पर घटित किया है; किसु इसका अर्थ प्रकृति पर भी कहुत सहज
ही घटित होता है । यहाँ शब्दां इस दंग से करने का प्रयास किया गया है कि दोनों ही अर्थ सहज ही सिद्ध हो सकें-
५५९७.अ स्वराति गर्गरो गोधा परि सनिष्वणत् । पिङ्गा परि चनिष्कददिन्द्राय ब्रह्मोद्यतम् ।
गर्गरे स्वर (रणवाद्यों अथवा मेघों से) उभर रहे हैं । गोधा (हस्तरक्षक आवरण अथवा किरणों के धारणकर्ता-
अवरोधकः) सब ओर शब्द कर रहे है । पिंगा (धनुष की परत्यं चा अथवा विद्युत) की ध्वनि (टंकार् अधवा कड़क)
सब ओर सुनाई देती है । ऐसे में इन्द्रदेव (पराक्रमी संरक्षक अथवा वर्षा के देवता) के लिए स्तोत्र बोलें ॥६ ॥
५५९८. आ यत् पतन्त्येन्यः सुदुघा अनपस्फुरः । अपस्फुरं गृभायत सोमभिन्द्राय पातवे ॥७ ।
जब उज्ज्वल जल से समृद्ध नदियाँ प्रवाहित होती हैं। उस समय इन्धदेव के पीने के लिए श्रेष्ठ गुणों से
युक्त मधुर सोमरस लेकर उपस्थित हों ॥७ ॥
५५९९. अपादिन्द्रो अपादम्निर्विश्वे देवा अमत्सत ।
वरुण इदिह क्षयत् तमापो अभ्यनूषत वत्सं संशिश्वरीरिव ॥८ ॥
अग्नि, इन्द्र तथा विश्वेदेवा सोमपान करके हर्षित हुए । वरुणदेव भी यहाँ उपस्थित रहें । जिस प्रकार गौं
अपने बच्चे को प्राप्त करने के लिए शब्द करती हैं, उसी प्रकार हमारे स्तोत्र उन वरुणदेव की प्रार्थना करते हैं ॥८ ॥
५६००.सुदेवो असि वरुण यस्य ते सप्त सिन्धवः । अनुक्षरन्ति काकुदं सूर्यं सुषिरामिव ॥
हे वरुणदेव ! जिस प्रकार किरणे सूर्य की ओर गमन करती है उसी प्रकार आपके ओज से सातो सरिताएँ
समुद्र कौ ओर प्रवाहित होती है ॥९ ॥
५३०१. यो व्यर्तीरफाणयत् सुयुक्तं उप दाशुषे । तक्वो नेता तदिद वपुरुपमा यो अमुच्यत ॥
जो इद्धदेव द्रुतगामी अश्वो को रथ में नियोजित करके हविग्रदाता यजमान के पास जाते हैं, वे विशाल शरीर
वाते नायक इन्द्रदेव यज्ञशाला मे प्रमुख स्थान प्राप्त करते हैँ ॥६० ॥
५६०२. अतीदु शक्र ओहत इन्द्रो विश्वा अति द्विषः ।
भिनत् कनीन ओदनं पच्यमानं परो गिरा ॥११ ॥
समर्थ इन्द्रदेव सभौ विद्वेषियों को दूर हटाते है । उन्होंने अपनो छोटो सी आवाज से बादलों को नष्ट
कर दिया ॥११ ॥
५६०३. अर्भको न कुमारकोऽधि तिष्ठन्नवं रथम् ।
स पक्षन्महिषं मृगं पित्रे पात्रे विभुक्रतुम् ॥१२ ॥
ये इद्धदेव अपने विशाल शरीर से नूतन रथ पर सुशोभित होते हैं । वे विविध श्रेष्ठ करमो को सम्पन्न करते
हुए बादलों को जल बरसाने के लिए प्रेरित करते है ॥१२ ॥
५६०४. आ तू सुशिप्र दंपते रथं तिष्ठा हिरण्ययम् ।
अध द्युक्षं सचेवहि सहस्रपादमरुषं स्वस्तिगामनेहसम् ॥।९३॥
हे सुन्दर आकृति वाले दप्यते (इन्रदेव) ! सहस्रो रश्मयो से आलोकित, द्रुतगामी स्वर्णिम रथ पर आप भली
प्रकार आरूढ़ हों (यहाँ आए) ; तब हम दोनों एक साथ मिलेंगे ॥१३ ॥