* भ्रीकृष्णाजन्यखण्ड * ३९९
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कर देती है। भगवानकी कथा शोक-सागरका | पवित्र हो गया है, वही इस भारतवर्षमें जन्म
नाश करनेवाली मुक्ति है। वह कानोंमें अमृतके | पाता है। वह यदि श्रीहरिकी अमृतमयी कथाका
समान मधुर प्रतीत होती है। कृपानिधे ! मैं आपका श्रवण करे, तभी अपने जन्मको सफल कर
भक्त एवं शिष्य हूँ। आप मुझे श्रीहरिकथाका ज्ञान | सकता है। भगवान्की पूजा, वन्दना, मनत्र-जप,
प्रदान कीजिये। तप, जप, बड़े-बड़े दान, पृथ्वीके सेवा, स्मरण, कीर्तन, निरन्तर उनके गुणोंका
तीर्थोंके दर्शन, श्रुतिपाठ, अनशन, ब्रत, देवार्चन | श्रवण, उनके प्रति आत्मनिवेदन तथा उनका
तथा सम्पूर्ण यज्ञोमे दीक्षा ग्रहण करनेसे मनुष्यको | दास्यभाव-ये भक्तिके नौ लक्षण हैं*। नारद!
जो फल मिलता है, वह सब ज्ञानदानकी सोलहवीं | इन सबका अनुष्ठान करके मनुष्य अपने जन्मको
कलाके बराबर भी नहीं है। पिताजीने मुझे आपके | सफल बनाता है। उसके मार्ममें विप्र नहीं आता
पास ज्ञान प्राप्त करनेके लिये भेजा है। सुधा- और उसकी पूरी आयु नष्ट नहीं होती। उसके
समुद्रके पास पहुँचकर कौन दूसरी वस्तु (जल |सामने काल उसी तरह नहीं जाता है, जैसे
आदि) पीनेकी इच्छा करेगा? गरुड़के सामने सर्प। भगवान् श्रीहरि उस भक्तका
भगवान् नारायण बोले--कुलको पवित्र | सामीप्य एक क्षणके लिये भी नहीं छोड़ते हैं।
करनेवाले नारद! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता |अणिमा आदि सिद्धियाँ तुरंत उसकी सेवामें
हूँ। तुम धन्य हो। पुण्यकी मूर्तिमती राशि हो।| उपस्थित हो जाती हैं। भगवान् श्रीकृष्णकी
लोकोंको पवित्र करनेके लिये ही तुम इनमें भ्रमण | आज्ञासे उसकी रक्षाके लिये सुदर्शन चक्र दिन-
करते हो। वाणीसे मनुष्योंके हृदयकी तत्काल रात उसके पास घूमता रहता है। फिर कौन
पहचान हो जाती है। शिष्य, कलत्र, कन्या, | उसका क्या कर सकता है? यमराजके दूत
दौहित्र, बन्धु- बान्धव, पुत्र-पौत्र, प्रवचन, प्रताप, स्वप्ने भी उसके निकट वैसे ही नहीं जाते
यश, श्री, बुद्धि, वैरी ओर विद्या-इनके विषयमे हैं, जैसे शलभ जलती हुई आगको देखकर उससे
मनुष्योंके हार्दिक अभिप्रायका पता चल जाता दूर भागते हैँ । उसके ऊपर ऋषि, मुनि, सिद्ध
है। तुम जीवन्मुक्त और पवित्र हो। भगवान् | तथा सम्पूर्ण देवता संतुष्ट रहते हैं। वह भगवान्
गदाधरके शुद्ध भक्त हो। अपने चरणोंकी धूलसे श्रीकृष्णकौ कृपासे सर्वत्र सुखी एवं निःशंक रहता
सबकी आधारभूता वसुधाको पवित्र करते फिरते है । श्रीकृष्णकी कथामें सदा तुम्हारा आत्यन्तिक
हो । समस्त लोकोंको अपने स्वरूपका दर्शन देकर | अनुराग है । क्यो न हो ? पिताका स्वभाव पुत्रमे
पवित्र बनाते हो। भगवान् श्रीहरिकी कथा परम | अवश्य ही प्रकट होता है । विप्रवर ! तुम्हारी यह
मङ्गलमयी है, इसीलिये तुम उसे सुनना चाहते | प्रशंसा क्या है? तुम्हारा जन्म ब्रह्माजीके मानससे
हो । जहाँ श्रीकृष्णकी कथाएँ होती हैं, वहीं सब | हुआ है । जिसका जिस कुलमें जन्म होता है,
देवता निवास करते हँ । ऋषि, मुनि और सम्पूर्ण | उसकी वुद्धि उसके अनुसार ही होती है। तुम्हारे
तीर्थ भी वहीं रहते हैं। वे कथा सुनकर अन्ते | पिता श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंकौ सेवासे ही
अपने निरापद् स्थानको जाते हैँ । जिन स्थानें | विधाताके पदपर प्रतिष्ठित हैं। वे नित्य-निरन्तर
श्रीकृष्णकी शुभ कथाएँ होती हैं, वे तीर्थ बन | नवधा भक्तिका पालन करते है ।
जाते हैँ । सैकड़ों जन्मोतक तपस्या करके जो जिसका श्रीकृष्णकौ कथामें अनुराग हो,
* अर्चनं वन्दनं मन्तरजपं सेयनमेव च। स्मरणं कीर्तनं शश्वद् गुणश्रवणमीप्सितम्॥
निवेदनं तस्य दास्यं नवधा भक्तिलक्षणम् । {-श्रीकृष्णजन्मखण्ड १। ३३-३४)