अध्याय १९८--२०० ]
* यप्र-यातनाका स्वरूप *
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हैं। हाथी, घोड़े, बैल, शरभ, हंस, मोर, सारस | यमराजकी पुरी परम शोभा पा रही है।
और चक्रवाक-प्रभृति पशु-पक्षियों-इन सभीसे
{ अध्याय १९५--१९७]
य,
यम-यातनाका स्वरूप
नचिकेताने कहा--द्विजवरो ! जब मैं यमपुरीमें | कुछ भी अभीष्ट हो, वह मुझसे माँग लो।
पहुँचा तो उस प्रेतपुरीके अध्यक्ष यमराजने मुझे
एक मुनि मानकर आसन, पाद्य एवं अर्घ्य
अर्पणपूर्वक मेरा सम्मान किया और कहा--' मुने!
यह सुवर्णमय आसन है, आप इसपर बिराजिये।'
वे मुझे देखते ही परम सौम्य बन गये थे।
फिर मैंने उनकी स्तुति करते हुए कहा-
"महाभाग! आप ही श्राद्धमें धाता और विधाताके
रूपसे दिखायी देते हैं। पितृसमूहमें आप प्रधान
देवता हैं। वृषभस्वरूप होनेसे आपको चतुष्पाद
कहा जाता है। आप कालज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी
एवं दृढ़क़ती हैं। प्रेतो पर शासन करनेवाले धर्मराज!
आपको निरन्तर नमस्कार है । प्रभो! आप कर्मके
प्रेरक, भूत, भविष्य एवं वर्तमानम विराजमान है ।
श्रीमन्! आपसे ऐसा प्रकाश फैल रहा है, मानो
दूसरे सूर्य ही हों। आपको नमस्कार है । प्रभविष्णो !
हव्य ओर कव्य पानेके अधिकारी आप ही हैं।
आपकी आक्ञासे व्यक्ति कठोर तपस्या, सिद्धि एवं
व्रतम सदा तत्पर होकर पापोंसे छुटकारा पा जाता
है। आप धर्मात्माओमें श्रेष्ठ, कृतज्ञ, सत्यवादी
तथा सम्पूर्ण प्राणिर्योके हितैषी है ।'
वैशम्पायनजी कहते ई -- राजन्! ऋषिपुत्र
नचिकेताके मुखसे ऐसी स्तुति सुनकर धर्मराज
अत्यन्त संतुष्ट हो गये ओर ऋषिकुमारसे उन्होंने
अपना अभिप्राय स्पष्ट करना आरम्भ किया।
यमराजने कहा-- अनघ! तुम्हारी वाणी यथार्थ
एवं परम मधुर है । मैं इससे अतिशय संतुष्ट हूं
अब तुम्हें दीर्घायुष्य, नीरोगता अथवा अन्य जो
ऋषिकुमार नचिकेताने कहा-- प्रभो ! आप
यहाँके अधिष्ठाता हैं। महाभाग! मैं जीना-मरना-
कुछ नहीं चाहता। आप सदा सम्पूर्ण प्राणियोंके
हितमें संलग्न रहते हँ । भगवन्! यदि आप मुझे
वर देना ही चाहते हैं तो मेरी इच्छा है कि आपके
देशको मैं भलीभाँति देख सकूँ। पापात्माओं और
पुण्यात्माओंकी जो गति है--प्रायः वह सभी यहाँ
दृष्टिगोचर हो रही है। राजन्! आप यदि मेरे लिये
बरदाता बनना चाहते हैं तो मुझे ये सभी
दिखानेकी कृपा करें। आपके कार्यकी व्यवस्था
करनेमें कुशल एवं शुभचिन्तक जो चित्रगुप्त हैं,
उन्हें भी दिखाना आपकी कृपापर निर्भर है।'
इस प्रकार मेरे कहनेपर महान् तेजस्वी
यमराजने द्वारपालको आज्ञा दी--'तुम इस ब्राह्मणको
समुचित रूपसे चित्रगुप्तके पास ले जाओ। उन
महाबाहुसे कहना कि ऋषिकुमारसे वे मृदुताका
व्यवहार करं । समयोचित अन्य सभी बातें भी
उनसे बता देना।
द्विजवरो ! जब यमराजने दूतको आज्ञा दी तो
उसने तुरंत मुझे चित्रगुप्तके पास पहुँचाया। मुझे
देखकर चित्रगुप्त अपने आसनसे उठ गये।
वस्तुस्थितिका विचार करके उन्होंने कहा--
"मुनिवर! आपका स्वागत है। आप इच्छानुसार
यहाँ पधारिये' और फिर उन्होने अपने दूतोंसे
कहा-' दूतो ! तुम लोग सदा मेरे मनके अनुसार
आचरण करते हो । तुम इन्हें यमपुरी इस प्रकार
दिखलाओ कि कोई जान भी न सके। इन्दे सर्दी,