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उत्तरपर्व ]

* विशोकद्रादशी-प्रत और गुडेन आदि दस्त धेनुओंकि दानकी विधि +

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ब्ह्मणोको पायसान्नसे संतृप्र कर पश्चात्‌ स्वयै भी भोजन करे ।

राजन्‌ } इस विधिसे जो मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशीका व्रत करता

है, उसे दीर्घ आयुकी प्राप्ति होती है । जन्मान्तरे किये गये

ब्रह्महत्या आदि महापातकॉसे उसकी मुक्ति हो जाती है । यदि

निष्कयमभावसे चते करता है तो उसे ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती

है, इसमें कोई संदेह नही ।

इसी प्रकार ख्ानादि कर पौष मासके शुक्ल पक्षकी

ड्वादशीको उपवास कर भगवान्‌ जनार्दनकी कृर्मरूपमे पूजा

करनी चहिये । माघ मासके गुह पक्षकी द्वादशीकों उपवास-

पूर्वक भगवान्‌ वराहकी प्रतिमाका पूजनकर ब्राह्मणको दान

करना चाहिये। इसी प्रकार फाल्गुन मासके शक्र॒ पक्की

द्रादशीको उपवासपूर्वक भगवान्‌ नरसिंहकी प्रतिमाका, चैत्र

मासके गुह पक्षकी द्वादशीको भगवान्‌ वामनकी प्रतिमाका,

वैशाख शुक्र ड्ादशीको परशुरामजीकी प्रतिमाका, ज्येष्ठ

मासकी शुक्र द्वादशीको भगवान्‌ राम-लक्ष्मणकी प्रतिमा,

आषाद्‌ शुक्ल द्वादक्षीको भगवान्‌ वासुदेव (कृष्ण) की

प्रतिमाको, श्रावण मासकी शुक्ल द्वादशीकों बुद्ध भगवान्‌की

तथा भाद्रपद मासके शठ पक्षकी द्वादशीको उपयासपूर्वक

भगवान्‌ कल्किकी प्रतिमाका यथाविधि अगं पूजन आदि कर

घटोंकी स्थापना करके पूजित प्रतिमा आदि ब्राह्यणो निवेदित

कर देनी चाहिये ।

इस प्रकार दस सोमे भगवान्के दशावतारोंका पूजनकर

पूर्व-विधानसे आशिन शुक्र द्रादशीको उपवास -पूर्वक भगवान्‌

पद्मयनाभकी तथा कार्तिक द्वादशीको वासुदेवकी पूजा करनी

चाहिये। अन्तमे प्रतिमा तथा घटोंको ब्राह्मणको निवेदित कर

दे। उन्हें भोजन कराकर, दक्षिणा प्रदान करे तथा दीनो, अनाथोंको

भी भोजन-वस्त्र आदिसे संतुष्ट करना चाहिये और फिर स्वयं

भी भोजन करना चाहिये।

राजन्‌ ! इस प्रकार द्वादश मासोंमें जो इस ब्रतकों करता

है, यह सभी पापोंसे मुक्त होकर विष्णु-सायुज्यको प्राप्त करता

है। घरणीदेवीने इस व्रतको किया था। इसीलिये यह घरणी-

ब्रतके नामसे प्रसिद्ध हुआ । प्राचीन कारुमें दक्षप्रजापतिने इस

ब्रतका अनुष्ठानकर प्रजाओंका अधिपतित्व प्राप्त किया था।

राजा युवनाश्वने इस ब्रतके अनुष्ठानसे मान्धाता नामक श्रेष्ठ

पुत्रको प्राप्तकर अन्तमें शाश्वत ब्रह्मपद प्राप्त किया था । इसी

प्रकार हैहयाधिपति कृतवीर्यने इस ब्रतके प्रभावसे महान्‌

पराक्रमी चक्रवर्ती राजा सहल्लार्जुनकों पुत्ररूपमें प्राप्त किया

था। शकुन्तलाने भी इस ब्रतके प्रभावसे राजर्षि दुष्यन्तको

पति-रूपमें तथा श्रेष्ठ भरतको पुत्र-रूपमें प्राप्त किया था। इसी

प्रकार अन्य कई श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजाओं तथा श्रेष्ठ पुरुषोनि इस

ब्रतके प्रभावसे उत्तम फल प्राप्त किया था। जो भी इसे करता है,

भगवान्‌ नारायण उसका उद्धार कर देते हैं" । (अध्याय ८३)

कक ध्कनन-

विशोकद्वादशी-ब्रत और गुडधेनुः आदि दस धेनुओकि दानकी विधि तथा उसकी महिमा

युधिष्ठिर्े पूछा--भगवन्‌ ! इस भूतरपर कौन ऐसा

उपवास या त है, जो मनुष्यके अभीष्ट वस्तुओंके वियोगसे

उत्पन्न शोकसमूहसे उद्धार करनेमें समर्थ, घन-सम्पत्तिकी वृद्धि

करनेवाला और संसार-भयका नाशक है।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा--महाराज ! आपने जिस

ब्रतके विषयमे प्रश्न किया है, वह समस्त जगतको प्रिय तथा

इतना महत््वशाली है कि देवताओकि लिये भी दुर्लभ है।

यद्यपि इन्द्र, असुर और मानव भी उसे नहीं जानते तथापि

उस पुण्यप्रद ब्रतका नाम विशोकद्ठादज्ञी-्रत है। बिद्रान्‌

वतीये, आश्रिन मासम दक्षमी तिथिके दिन अस्प आहार

करके नियमपूर्वक इस व्रतका आरम्भ करना चाहिये। पुनः

एकादज्ञौके दिन ब्रती उत्तराभिमुख अथवा पूर्वाभिमुख बैठकर

दातून करे, फिर (स्नान आदिसे निवृत्त होकर) निराहार रहकर

भगवान्‌ केदाव और लक्ष्मीकी विधिपूर्वक भलीभाँति पूजा करे

और "दूसरे दिन भोजन करूँगा'--ऐसा नियम लेकर सत्रिमें

शयन करे। प्रातःकाल उठकर सर्वौषधि और पशगव्यमिले

आप-जैसे भक्तिमानके प्रति मैं अवश्य इसका वर्णन करूँगा। जरसे खान करे तथा श्वेत वख ओर खत पुष्पोंकी मातर धारण

१-याराहपुराणके ३९वें अध्यायसे ५०वें तक ठीक इतौ प्रकार इन दाद द्वादख्जी-अरतोंकी कथा एवं ब्रत-विधिका विस्तारसे वर्णन हुआ है।

२-थह विषय मल्त्यपुरण ८२, पदपु" १।२१, वराहपुण्ण १०२, कृत्यकल्पतरु ५, दानकाष्ड पृ, १४१ तथा दानमयूख, दानसागग़दिमें विशेष

शुद्धरूपसे उद्धृत है। तदनुसार इसे भ शुद्ध किया गया है।

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