स्वर्गखण्ड ]
£55०*#३७###########:
कभी सवारी नहीं करते, वे स्वर्गलोकके निवासी होते हैं ।
जो ब्राह्मण प्रतिदिन अभ्रिपूजा, देवपूजा, गुरुपूजा ओर
द्विजपूजामें तत्पर रहते हैं, थे स्वर्गलोके जाते है ।
बावली, कुआं और पोखरे बनवाने आदिके
पुण्यका कभी अन्त नहीं होता; क्योकि वहां जलचर और
थलचर जीव सदा अपनी इच्छके अनुसार जल पीते
रहते हैं। देवता भी वावली आदि बनवानेवालेक् नित्य
दानपययण कहते है। वैद्यवर् ! प्राणी जैसे-जैसे
बावली आदिका जल पीते हैं, वैसे-ही-वैसे धर्मकी वुद्धि
होनेसे उसके बनवानेवाले मनुष्यके लिये स्वर्गका निवास
अक्षय होता जाता है। जल प्राणियोंका जीवन है।
जलके ही आधारपर प्राण टिके हुए हैं। पातकी मनुष्य
भी प्रतिदिन स्नान करनेसे पवित्र हो जाते हैं। प्रातः-
कालका सान बाहर और भीतरके मलको भी धो डालता
है। प्रातःस्नानसे निष्पाप होकर मनुष्य कभी नरकमें नह
पड़ता | जो बिना स्नान किये भोजन करता है, यह सदा
मलका भोजन करनेवाला है। जो मनुष्य स्नान नहीं
करता, देवता और पितर उससे विमुख हो जाते हैं । वह
अपवित्र माना गया है। वह नरक भोगकर कीट-योनिको
प्राप्त होता है।
जो स्मेग पर्वके दिन नदीकी धारामें खान करते हैं,
ये न तो नस्कमें पड़ते हैं और न किसी नीच योनिमें ही
जन्म लेते हैं। उनके लिये बुरे स्वप्र और बुरी चिन्ता
सदा निष्फल होती हैं। विकुण्डल ! जो पृथ्वी, सुवर्ण
और गौ--इनका सोलह बार दान करते हैं, वे स्वर्ग
लोकमें जाकर फिर बहाँसे वापस नहीं आते। विद्रान्
पुरुष पुण्य तिचियौमे, व्यतीपात योगमें तथा संक्रान्तिके
समय स्नाने करके यदि थोड़ा-सा भी दान करे तो कभी
दुर्गतिमें नहों पड़ता । जो मनुष्य सत्यवादी, सदा मौन
घारण करनेवाले, प्रियवक्ता, क्रोधहीन, सदाचारी,
अधिक यकवाद न करनेवाले, दूसरोंके दोष न
* धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, स्वर्ग तथा नस्कमें ले जानेवाकते शुभाझुभ कर्मोंका वर्णन «
'###########################*#*#***+४$»**#०*०७७+*»०००७४**+२ २००० २००२ ३३ २३ ३ ३ ३
३५३
देखनेवाले, सदा सब प्राणिर्योपर दया करनेवाले,
दूसरोंकी गुप्त बातोंकों प्रकट न करनेवाले तथा दूसरोंके
गुणोंका बखान करनेवाले हैं; जो दूसरेके धनको
तिनकेके समान समझकर मनसे भी उसे लेना नहीं
चाहते, ऐसे कतोगौको नरक-यातनाका अनुभव नहीं
करना पड़ता। जो दूसरोंपर कलङ्क लगानेवाला,
पाखण्डी, महापापी ओर कठोर यचन बोलनेवाल्म्र है,
वह प्रकूयकालतक नरके पकाया जाता है। कृतघ्न
पुरुषका ती्कि सेवन तथा तपस्यासे भी उद्धार नहीं
होता । उसे नस्कमें दीर्घकालतक भयङ्कर यातना सहन
करनी पड़ती है। जो मनुष्य जितेन्द्रिय तथा मिताहारी
होकर पृथ्वीके समस्त तीर्थेमिं स्नान करता है, वह
यमराजके घर नहीं जाता। तीर्थमें कभी पातक न करे,
तीर्थको कभी जीविकाका साधन न बनाये, तीर्थे दान
न के तथा वहाँ धर्मको बेचे नहीं। तीर्थमें किये हुए
पातकका क्षय होना कठिन है। तीर्थमें लिये हुए दानका
पचाना मुदिकल है।
जो एक बार भी गड्जाजीके जलमें स्नान करके
गङ्गाजलसे पवित्र हो चुका है, उसने चाहे राशि-राशि
पाप किये हों, फिर भी वह नरकमें नहीं पड़ता। हमारे
सुननेमें आया है कि व्रत, दान, तप, यज्ञ तथा पवित्रताके
अन्यान्य साधन गज्लकी एक वदसे अभिषिक्त हुए
पुरुषकी समानता नहीं कर सकते ।* जो धर्मद्रव
(धर्मकः ही द्रवीभूतस्वरूप) है, जलका आदि कारण है,
भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुआ है तथा जिसे
भगवान् शङ्करे अपने मस्तकपर धारण कर रखा है, वह
गङ्गाजीक निर्मल जल प्रकृतिसे परे निर्गुण ब्रह्म ही ६ै--
इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः ब्रह्माण्डके भीतर
ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो गङ्गाजलकी समानता कर
सके | जो सौ योजन दूरसे भी "गङ्गा, गङ्गा' कहता है,
वह मनुष्य नरके नहीं पड़ता। फिर गङ्गाजीके समान
स्कृदङ्गाम्भसि सालः पूतो गाङ्गेयवारिष्या । न॒ जे नरक याति अपि पातकराशिकृत्
पवित्राणौतराणि
च । गङ्गाविन्द्रभिषिक्तस्य न समा इति नः श्रुतम् ४
(३१।५२-७३)