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३६८ | [ मत्स्य पुराण

तेव्रापश्यन्त तन्देवं सितपद्मप्रभं शुभम्‌ ।

योगनिद्रासृनिरतं पीतवाससमच्युतम्‌ । ३३

हारकेयू रनद्धा ज्ञमहिपय कसंस्थितम्‌ ।

पादपद्मोन पाया: स्पुशन्तं नाभिमण्डलम्‌ ३४

स्वपक्षव्यजनेनाथ वीज्यमानजरुत्मता ।

स्त्‌ यमानं समन्ताच्च सिद्धचारणकिन्नरे: ।३५

भगवान्‌ शेष ने कहा--इस परे ब्रह्माण्ड के वेष्टनसे भी तथा

पूणं ब्रह्माण्ड के मन्थनमे भी मुझे कोई ग्लानि नहीं होती किर इस

मन्दर के वेष्टन से क्या मुझे हानि हो सकती है ।२६। इसके अनन्तर

उसी क्षण में उस मन्द शैल को उत्पादित करके क्षीर सागर में उस

समय में लीला ही से डाल दिया था और कूर्मं तथा नाग नीचे स्थित

हो गये ३. जिस समय महादेव और दानव क्षीरोद के मन्थनमें

निराधार जनत को मन्थन करने में समर्थ न हो सके थे तो वे सब बलि

के सहित नारायण प्रभु के निवारा स्थल पर गये थे वहाँ पर देवों के

सहित नारायण प्रभू के निवास स्थल पर गये थे, वहाँ पर देवों के भी

देवेश्वर भगवान्‌ जनार्दन स्वयं ही विराजमान थे ।३१-३२। वहा पर

उन सवने श्वेत पदम के समान प्रभा वले-योग निद्रा में निरत---

पीवास्बरधारी अच्युत देव का दर्शन किया था । वह प्रभु हार और

केयूर से नद्ध अंग बाले और शेष के पर्यद्धु णर णयन करने वालें---

पदुमा के पाद पद्म से नाशि मण्डल का स्पर्श करते हुए विराजमान

थे । गरुड दस समय में अपने पक्षों से उनका व्यंजन कर रहे थे. और

सिद्धचारण तथा गन्धर्वो के द्रारा स्तव्रन किये जा रहे थे ।३३-३५।

आम्नाये म॑ त्तिमद्भिश्च स्तृथमानं समन्ततः ।

सव्यवाहृपधान तन्तुष्टुबुर्देवदानवा: ।३६

कृताहजलिपुटा: सर्वे प्रणताः सवंतो दिशम्‌ ।

नमो लोकत्रयाध्यक्ष ! तेजसामित'भास्कर ! ।३७

नमो विष्णों ! नमो विष्णो / नमस्ते कंटभार्देन ।

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