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* संक्षिप्त श्रीवराहपुराण *
[ अध्याय १५३-१५५
“वैश्य ! आज मैँ तुम्हें खाकर तृप्ति प्राप्त करेगा ।' | न आऊँ तो एक बार कन्यादान करके फिर
इसपर सुधन बोला--' राक्षस ! बस, तुम थोड़ी देर | दूसरेको दान करने अथवा ब्राह्मणक हत्या करने,
प्रतीक्षा करो, मैं तुम्हें पर्याप्त भोजन दूँगा और | मदिर पीने, चोरी करने या त्रत भङ्गं करनेपर जो
बादमें तुम मेरे इस शरीरको भी भक्षण कर लेना। | बुरी गति मिलती है, वह गति मुझे प्राप्त हो।
पर इस समय मैँ देवेश्वर श्रीहरिके सामने नृत्य एवं
रात्रि-जागरण करनेके लिये जा रहा हूँ। मैं अपना
यह व्रत पूरा कर प्रातः सूर्यके उदय होते ही
तुम्हारे पास वापस आ जाऊँगा तब तुम मेरे इस
शरीरको अवश्य खा लेना। भगवान् नारायणकौ
प्रसननताके लिये किये जानेवाले मेरे इस तव्रतको
भङ्ग करना तुम्हारे लिये उचित नहीं है ।' इसपर
ब्रह्मयक्षस आदरपूर्वक मधुर वाणीसे बोला-' साधो !
तुम यह असत्य बात क्यों कह रहे हो ? भला,
ऐसा कौन मूर्ख होगा, जो राक्षसके मुखसे छूटकर
पुनः स्वेच्छासे उसके पास लौट आये ।'
इसपर वैश्यवर बोला--' सम्पूर्णं संसारकौ जड़
सत्य है । सत्यपर ही अखिल जगत् प्रतिष्ठित है ।
वेदके पारगामी ऋषिलोग सत्यके बलपर ही सिद्धि
प्राप्त करते हैं। यद्यपि पूर्वजन्मके कर्मवश मेरी
उत्पत्ति धनी वैश्यकुलमे हुई है, फिर भी मैं निर्दोष
हूँ। ब्रह्मराक्षस! मँ प्रतिजञपूर्वक कहता हूँ कि वहाँ
जागरण और नृत्य करके सुखपूर्वक मैं अवश्य लौट
आऊँगा। सत्यसे ही कन्याका दान होता है और
ब्राह्मण सदा सत्य बोलते है । सत्यसे ही राजाओंका
राज्य चलता है। सत्यसे ही पृथ्वी सुरक्षित है।
सत्यसे ही स्वर्ग सुलभ होता है और सत्यसे ही
मोक्ष मिलता है। अत: यदि मैं तुम्हारे सामने न
आक तो पृथ्वीका दान करके पुनः उसका उपभोग
करनेसे जो पाप होता है, मैं उसका भागी बनुं।
अथवा क्रोध या द्वेषषश जो पत्नीका त्याग करता
है, वह पाप मुझे लगे। यदि मैं पुनः तुम्हारे पास
न आऊँ तो एक साथ बैठकर भोजन करनेवाले
व्यक्तियोंमें जो पट्टिभेदका पाप करता है, मुझे वह
पाप लगे। अथवा यदि मैं फिर तुम्हारे पास पुनः
भगवान् वराह कहते हैं--देवि! सुधनकी
बात सुनकर वह ब्रह्मराक्षस संतुष्ट हों गया। उसने
कहा--' भाई! तुम वन्दनीय हो और अब जा
सकते हो।' इसपर वह कलामर्मज्ञ वैश्य मेरे
सामने आकर नृत्यगान करने लगा और प्रातःकालतक
नृत्य करता रहा। दूसरे दिन उसने प्रातःकाल ' ॐ
नमो नारायणाय 'का उच्चारण कर यमुनामें गोता
लगाया और मथुरा पहुँचकर मेरे दिव्य रूपका
दर्शन किया। देवि! उसी समय मैं एक दूसरा रूप
धारणकर उसके सामने प्रकट हुआ और उससे
मैंने पूछा-'आप! इतनी शीघ्रतासे कहाँ जा रहे
हैं ?' इसपर सुधनने कहा--' मैं अपनी प्रतिज्ञानुसार
ब्रह्मराक्षके पास जा रहा हँ ।' उस समय मैंने
उसे मना किया और कहा--'अनघ! तुम्हें वहाँ
नहीं जाना चाहिये। जीवन रहनेपर ही धर्मानुष्ठान
सम्भव है। इसपर उस वैश्यने उत्तर दिया--
“महाभाग! मैँ ब्रह्मराक्षषके पास अवश्य जाऊँगा,
जिससे मेरी (सत्यकी) प्रतिज्ञा सुरक्षित हो।
जगत्प्रभु भगवान् विष्णुके निमित्त जागरण और
नृत्य करनेका मेरा ब्रत था। वह नियम सुखपूर्वक
सम्पन्न हो गया।' इस प्रकार कहकर वह
वहाँसे चला गया और ब्रह्मराक्षससे कहा--
“राक्षस ! तुम अब इच्छानुसार मेरे इस शरीरको
खा जाओ।'
इसपर ब्रह्मराक्षसने कहा-' वैश्यवर ! तुम
वस्तुतः सत्य एवं धर्मका पालन करनेवाले साधु
पुरुष हो, तुम्हारा कल्याण हो मैं तुम्हारे व्यवहारसे
संतुष्ट हूँ। महाभाग! अब तुम अपने नृत्य एवं
जागरणके पुरे पुण्यको मुझे देनेकी कृपा करो।
तुम्हारे प्रभावसे मेरा भी उद्धार हो जायगा।'