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२८० वेदे संहिता धाग-१

[ सूक्त - १८५ |

[ ऋषि- अगस्त्य मैत्रावरुणि । देवता - द्यावापृथिवो । छन्द- बषट्‌ ।]

१९३१. कतरा पूर्वा कतरापरायोः कथा जाते कवयः को वि वेद्‌ ।

विश्वं त्मना बिभृतो यद्ध नाम वि वर्तेते अहनी चक्रियेव ॥१॥

हे ऋषियो ! ये (यलोक ओर भूलोक) दोनों किस प्रकार उत्पन्न हुए और इन दोनों में कौन सर्वप्रथम

उत्पन्न हुआ तथा बाद में कौन हुआ ? इस रहस्य को कौन भलीप्रकार जानने में समर्थ है ये दोनों लोक

सम्पूर्ण विश्व को धारण करते हैं और चक्र के समान घूमते हुए दिन-रात का निर्माण करते है ॥१ ॥

१९३२. भूरिं दरे अचरन्ती चरन्तं पहन्तं गर्भमपदी दथाते ।

नित्यं न सूनुं पित्रोरुपस्थे द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्‌ ॥२॥

स्वयं पद विहीन तथा अचल होने पर भी ये दोनो च्चावा-पृथिवी असंख्य चलने-फिरने में सक्षम पदयुक्त

प्राणियों को धारण करते है । जिस प्रकार माता-पिता समीप उपस्थित पुत्र की सहायता करते हैं, उसी प्रकार

द्युलोक ओर परथिवी हम सभी प्राणियों को संकरो से बचायें ॥२ ॥

१९३३. अनेहो दात्रमदितेरनर्वं हुवे स्वर्वदवधं नमस्वत्‌ ।

तद्रोदसी जनयतं जगित द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्‌ ॥३ ॥

हम अविनाशी पृथ्वी से पापमुक्त, क्षयरहित, हिंसारहित, तेजस्वी और विनप्रता प्रदान करने वाले धन-वैभव

की कामना करते है । हे धावा-पृथिवि ! ऐसा वैभव स्तोताओ के लिए प्रदान करे । ये दोनों पाप कर्मों से

हमारी रक्षा करें ॥३ ॥

१९३४. अतप्यमाने अवसावन्ती अनु ष्याप रोदसी देवपुत्रे ।

उभे देवानामुभयेभिरहां द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्‌ ॥४॥

देव शक्तियों के उत्पादक, चुलोक और पृथ्वी लोक पीड़ित न होते हुए भी अपने कार्य में शिथिल न

होते हुए अपनी संरक्षण की शक्तियों से प्राणियों के संरक्षक हैं । दिव्यता युक्त दिन और रात के अनुकूल हम

रहे । चयावा-पृथिवी दोनों, पाप से हमारी रक्षा करें ॥४ ॥

१९३५. सङ्गच्छमाने युवती समन्ते स्वसारा जामी पित्रोरुपस्थे ।

अभिजिघ्रन्ती भुवनस्य नाभिं द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्‌ ॥५ ॥

चिर युवा, बहिनों की तरह परस्पर सहयोग करने वाली ये दोनों (दयावा पृथिवी) पिता के समीप ( परमात्मा

के अनुशासन में ) रहकर भुवन को नाभि (यज्ञ) को सूँघती (उससे पुष्ट होती) हैं । ये द्यावा-पृथिवी हमे सभी

विपदाओं से संरक्षित करें ॥५ ॥

१९३६. उर्वीं सद्मनी बृहती ऋतेन हुवे देवानामवसा जनित्री ।

दधाते ये अमृतं सुप्रतीके द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्‌ ॥६॥

जो श्रेष्ठ स्वरूप वाली चावा-पृथिवो जल रूप अभृत को धारण करती है । ऐसी विशाल आश्रयभूत तथा

सबको उत्पन्न करने वाली द्ावा-पृथिवौ को देवशक्तियों की प्रसत्नता के लिए-यज्ञीय कार्य के लिए आवाहित

करते हैं, वे दोनों (द्यावा पृथिवी) हे पाप कर्मों से बचायें ॥६ ॥

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