* अग्निपुराण *
( राशियोका भोगकाल एवं चरादि संज्ञा तथा
प्रयोजन कह रहे हैं--) मीन, मेष, मिथुन -इनमें
प्रत्येकके चार दण्ड; वृष, कर्क, सिंह, कन्या--
इनमें प्रत्येकके छः दण्ड; तुला, वृश्चिक, धनु,
मकर, कुम्भ -इनमें प्रत्येकके पाँच दण्ड भोगकाल
हैं। सूर्य जिस राशिमें रहते हैं, उसीका उदय होता
है ओर उसी राशिसे अन्य राशियोंका भोगकाल
प्रारम्भ होता दै । मेघादि राशियोंकी क्रमशः ` चर्"
"स्थिर" ओर "द्विस्वभाव ' संज्ञा होती है। जैसे --
मेष, कर्क, तुला, मकर--इन राशियोको “चर”
संज्ञा दै । इनमें शुभ तथा अशुभ स्थायी कार्य करने
चाहिये । वृष, सिंह, वृश्चिक, कुम्भ--इन राशियोंकी
“स्थिर' संज्ञा है। इनमें स्थायी कार्य करना
के हे के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के के हे की के के के के के के के के के के।
चाहिये। इन लग्नोंमें बाहर गये हुए व्यक्तिसे शीघ्र
समागम नहीं होता तथा रोगीको शीघ्र रोगसे
मुक्ति नहीं प्राप्त होती। मिथुन, कन्या, धनु,
मीन--इन राशियोंकी “द्विस्थभाव' संज्ञा है। ये
द्विस्वभावसंज्ञक राशियाँ प्रत्येक कार्यमें शुभ फल
देनेवाली हैं। इनमें यात्रा, व्यापार, संग्राम, चिवाह
एवं राजदर्शन होनेपर वृद्धि, जय तथा
लाभ होते हैं और युद्धमें विजय होती है। अश्विनी
नक्षत्रकी बीस ताराएँ हैं और घोड़ेके समान
उसका आकार है। यदि इसमें वर्षा हो तो एक
राततक घनघोर वर्षा होती है। यदि भरणीरमे वर्षा
आरम्भ हो तो पंद्रह दिनतक लगातार वर्षा होती
रहती है॥ १३--१९॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महाप्राणमें विभिन्न बलॉका वर्णन” नामक
एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १२७॥
(ज
एक सौ अट्टाईसवाँ अध्याय
कोटचक्रका वर्णन
शंकरजी कहते हैं-- अव मैं 'कोटचक्र' का | प्रथम नाड़ीमें आठ नक्षत्र हो जा्यैगे । इसी तरह
वर्णन करता हूँ--पहले चतुर्भुज लिखे, उसके | पूर्वादि दिशाओंके अनुसार रोहिणी, पुष्य,
भीतर दूसरा चतुर्भुज, उसके भीतर तीसरा चतुर्भुज | पूर्वाफाल्गुनी, स्वाती, ज्येष्ठा, अभिजित्, शतभिषा,
और उसके भीतर चौथा चतुर्भुज लिखे। इस तरह
लिख देनेपर ' कोटचक्र ' बन जाता दै । कोटचक्रके
भीतर तीन मेखलाएँ बनती हैं, जिनका नाम | पूर्वादि
क्रमसे "प्रथम नाड़ी ', मध्यनाडी ' और ' अन्तनाड़ी '
है। कोटचक्रके ऊपर पूर्वादि दिशाओंको लिखकर
मेषादि राशिर्योको भी लिख देना चाहिये।
(कोटचक्रं नक्षत्रोंका न््यास कहते है -) पूर्व
भागे कृत्तिका, अग्निकोणे आश्लेषा, दक्षिणमें
मघा, नैत्रत्यमे विशाखा, पश्चिममें अनुराधा,
वायुकोणे श्रवण, उत्तमे धनिष्ठा, ईशानमें भरणीको
लिखे । इस तरह लिख देनेपर बाह्म नाड़ीमें अर्थात्
अश्विनी--ये आठ नक्षत्र, मध्यनाड़ीमें हो जाते
हैं। कोटके भीतर जो अन्तनाड़ी है, उसमें भी
दिशाओंके अनुसार पूर्वमे मृगशिरा,
अग्निकोणमें पुनर्वसु, दक्षिणे उत्तराफल्गुनी,
नैकत्यमें चित्रा, पश्चिममें मूल, वायव्यमें उत्तराषाढा,
उत्तरे पूर्वाभाद्रपदा और ईशानमें रेबतीकों लिखे।
इस तरह लिख देनेपर अन्तनाड़ीमें भी आठ नक्षत्र
हो जाते हैं। आद्रा, हस्त, पूर्वाषाढा तथा
उत्तराभाद्रपदा-ये चार नक्षत्र कोटचक्रके
मध्यमें स्तम्भ होते हैं।* इस तरह चक्रको लिख
देनेपर बाहरका स्थान दिशाके स्वामिर्योका होता
तुर्षमुत्तरभादकम्। मध्ये स्तप्भचतुष्कं तु दयात् कोटस्य कोट ॥ (अग्विषु० १२८।९)
आद्रा हस्तस्तथाषादा
प्रन्थान्वरमे भी ऐसा ही वर्णन है।
नामक ग्रन्थमें समचतुएल कोटचक्रफे प्रकरणमें २३ में सलोकमें स्तम्भ-चतुष्टयफा वर्णन इस प्रकार किया गया हैं--
पर्ये रौद्रं यमे हस्तं पूर्वाषाढा च खारूुणे। उत्तो चोतराभाद्रा एतत् स्तम्भचतुष्टयम् ॥