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+आीमजारकत *

[ अ०७

जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोकका उपदेश दिया

और जो स्वयै निरन्तर अनुभव होनेवाले आत्मस्वरूपकी

प्राप्तिसे सब प्रकारकी तृष्णाओंसे मुक्त थे, उन भगवान्‌

ऋषभदेवको नमस्कार है॥ १९॥

सातवाँ अध्याय

प्ररत-चरित्र

श्रीशुकदेवजी कहते है-- राजन्‌ ! महाराज भरत

बड़े ही भगवद्धक्त थे। भगवान्‌ ऋषभदेवने अपने

संकल्पमात्रसे उन्हें पृथ्वीकी रक्षा कनके लिये नियुक्त कर

दिया। उन्होंने उनकी आज्ञामें स्थित रहकर विश्वरूपकी

कन्या पञ्चजनीसे विवाह किया ॥ १॥ जिस प्रकार तामस

अहङ्कारे शब्दादि पाँच भूततन्मात् उत्पन्न होते हैं--उसी

प्रकार पञ्चजनीके गर्भसे उनके सुमति, गाषट्रभृत, सुदर्शन,

आवरण और धूप्रकेतु नामक पाँच पुत्र हुए--जो सर्वथा

उन्हींक समान थे। इस वर्षको, जिसका नाम पहले

अजनाभवर्ष था, राजा भरतके समयसे ही “भारतवर्ष'

कहते हैं॥ २-३ ॥

महाराज भरत बहुज्ञ थे। वे अपने-अपने कर्मोमें

लगी हुई प्रजाका अपने बाप-दादोकि समान स्वधर्मपे

स्थित रहते हुए अत्यन्त वात्सल्यभावसे पालन करने

लगे॥४॥ उन्होंने होता, अध्वर्यु, उद्गाता और

ब्रह्मा--इन चार ऋत्विजोंद्रास कराये जानेवाले प्रकृति

और विकृति* दोनो प्रकारके अभ्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास

चातुर्मास्य, पशु और सोम आदि छोटे-बड़े क्रतुओं

(यज्ञो) से यथासमय श्रदधपूर्वक यज्ञ॒ और क्रतुरूप

श्रीभगवान्‌का यजन किया ॥ ५॥ इस प्रकार अङ्गं और

क्रियाओकि सहित भिन्न-घिन्न यज्ञॉके अनुष्ठानके समय

जब अध्वर्युगण आहूति देनेके लिये हवि हाथमे लेते, तो

यजमान भरत उस यज्ञकर्मसे होनेवाले पुण्यरूपं फलको

यज्ञपुरुष भगवान्‌ वासुदेवके अर्पण कर देते धे । वस्तुतः

वे परब्रह्म ही इन्द्रादि समस्त देवताओकि प्रकाशक, मन्त्रोकि

वास्तविक प्रतिपाद्य तथा उन देवताओकि भौ नियामक

होनेसे मुख्य कर्ता एवं प्रधान देव हैँ । इस प्रकार अपनी

भगवदर्पण बुद्धिरूप कुशलतासे हृदयके राग-द्वेषादि

मलोका मार्जन करते हुए वे सूर्यादि सभी यज्ञभोक्ता

देवताओंका भगवानके नेत्रादि अवयचोकि रूपमे चिन्तन

करते थे॥६॥ इस तरह कर्मकी शुद्धिसे उनका

अन्तःकरण शुद्ध हो गया । तब उन्हें अन्तर्यामीरूपसे

विराजमान, हदयाकाशमे ही अभिव्यक्त होनेवाले,

ब्रह्मस्वरूप एवं महापुरुषोंकि लक्षणोंसे उपलक्षितं भगवान्‌

वासुदेबमें--जो श्रीवत्स, कौस्तुभ, बनमाला, चक्र, शङ्खं

ओर गदा आदिसे सुशोभित तथा नारदादि निजजनोकि

हृदयोमें चित्रके समान निश्चलभावसे स्थितं रहते

हैं--दिन-दिन वेगपूर्वक बढ़नेबाली उत्कृष्ट भक्ति

प्राप्त हुई ॥ ७॥

इस प्रकार एक करोड़ वर्ष निकल जानेपर उन्होंने

राज्यभोगका प्रारब्ध क्षीण हुआ जानकर अपनी भोगी हुई

वंशपरम्परागत सम्पत्तिको यथायोग्य पुत्रोंमें बाँट दिया।

फिर अपने सर्वसम्पत्तिसम्पन्न रजमहलसे निकलकर वे

पुलहाश्रम (हरिहरक्षेत्र) में चले आये॥८॥ इस

पुलहाश्रममें रहनेवाले भक्तोपर भगवानका बड़ा हो

वात्सल्य है। वे आज भी उनसे उनके इषटरूपमें मिलते

रहते हैं॥ ९॥ वहाँ चक्रनदी (गण्डकी) नामकी प्रसिद्ध

सरिता चक्राकाः शालग्राम-शिलाओंसे, जिनके

ऊपर-नीचे दोनों ओर नाभिके समान चिह्न होते हें,

सब ओरसे ऋषियोके आश्रमोंको पवित्र करती

रहती है ॥ १० ॥

उस पुलहाश्रमके उपवनमें एकान्त स्थाने अकेले

# प्रकृति और विकृति-भेदसे अीनष्ेभदि क्रतु दो प्रकारके होते हैं। सम्पूर्ण ङ्गे युक्त क्रतुओँक्ने 'कृति' कहते है और जिसमे

सन अङ्ग पूर्ण नहीं होते, किसी-न-किसौ अके कमो रहती है, उन्हें 'विकृति' कहते हैं।

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