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काण्ड २० सूक्त १० ५

५०५४. अविहि सोमकामं त्वाहुरयं सुतस्तस्य पिबा पदाय ।

उरुव्यचा जठर आ वृषस्व पितेव नः शृणुहि हूयमानः ॥२ ॥

हे सोमाभिलाषी इन्रदेव ! आप हमारे सम्मुख पधार । यह अभिषुत सोम आपके निमित्त ह । इसे अपने

उदर में स्थापित करें तथा आवाहन किये जाने पर हमारी प्रार्थनाओं को पिता के समान ही सुनने की कृपा करें ॥२ ॥

५०५५. आपूर्णो अस्य कलशः स्वाहा सेक्तेव कोशं सिसिचे पिबध्यै ।

समु प्रिया आववृत्रन्‌ मदाय प्रदक्षिणिदभि सोमास इन्द्रम्‌ ॥३ ॥

यह सोमरस से परिपूर्ण कलश इन्धदेव के पीने के लिए है । जैसे सिंचनकर्ता क्षेत्र को सिंचित करते है वैसे

ही हम इद्रदेव को सोमरस से सीचते है । प्रिय सोम इनद्रदेव के घन को प्रमुदिते करने के लिए प्रदक्षिणा गति

करता हुआ उनके समीप पहुँचे ॥३ ॥

[ सूक्त- ९ |

[ ऋषि- नोधा, ३-४ मेध्यातिथि । देवता- इन्द्र । छन्द- ब्रिष्टप्‌ ३-४ प्रगाध (वृहती + सतोबृहती) ॥]

५०५६. तं वो दस्ममृतीषहं वसोर्मन्दानमन्धसः ।

अभि वत्सं न स्वसरेषु धेनव इन्द्रं गीर्भिनवामह ॥१ ॥

हे ऋत्विजो ! शत्रुओं से रक्षा करने वाले, तेजस्वी सोमरस से तृप्त होने वाले इन्द्रदेव की हम उसी प्रकार

स्तुति करते है, जैसे गोशाला में अपने बछड़ों के पास जाने के लिए गौएँ उल्लसित होकर रैंभाती हैं ॥१ ॥

५०५७, दयुक्षं सुदानुं तविषीभिरावृतं गिरिं न पुरुभोजसम्‌ ।

कषुमन्तं वाजं शतिनं सहसिणं मक्षु गोमन्तमीमहे ।॥२ ॥

देवलोकवासी, उत्तम दानदाता सामर्थ्यवान्‌ , बहुत प्रकार के पोषण देने वाले पर्वत के समान अन्न ओर गौओं

से सम्पन्न इन्द्रदेव से हम सैकड़ों-सहस्त्रों (सम्पत्तियाँ) माँगते हैं ॥२ ॥

५०५८. तत्‌ त्वा यामि सुवीर्यं तद्‌ ब्रह्म पूर्वचित्तये ।

येना यतिभ्यो भृगवे धने हिते येन प्रस्कण्वमाविथ ॥३ ॥

हे इनद्रदेव ! आपने जिस शक्ति से यतियो तथा भृगु ऋषि को धन प्रदान किया धा तथा जिस ज्ञान से ज्ञानियों

(प्रस्कण्व) को रक्षा की थी, उस ज्ञान तथा बल की प्राप्ति के लिए सबसे पहले हम आपसे प्रार्थना करते हैं ॥३ ॥

५०५९. येना समुद्रमसुजो महीरपस्तदिन्द्र वृष्णि ते शवः।

सद्यः सो अस्य महिमा न संनशे यं क्षोणीरनुचक्रदे ॥४ ॥

हे इन्द्रदेव जिस शक्ति से आपने समुद्र तथा विशाल नदियों का निर्माण किया है; वह शक्ति हमारे अभीष्ट

को पूर्ण करने वाली है आपकी जिस महिमा का अनुगमन दावा - पृथिवी करते हैं, उसका कोई पारावार नहीं ॥४ ॥

[ सूक्त-१० |

[ ऋषि- मेध्यातिथि । देवता- इनदर । छन्द- प्रगाथ (बृहती + सतोबहती)।]

५०६०. उदु त्ये मधुमत्तमा गिर स्तोमास ईरते ।

सत्राजितो धनसा अक्षितोतयो वाजयन्तो रथा इव ॥१ ॥

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