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छोकमें कीर्ति और धर्मरा उपार्जन करता है। आप तो

आगानके भक्त हैं। अतः आपको विशेषरूपसे सफह्ता

मिल्तेगी । राजन्‌ ! काष्ठरूपरमे अवतीर्ण हुए. साक्षात्‌ भगवान्‌

विष्णुका यह प्रासाद है। चार स्वरूपोर्मे व्यक्त हुए भगवान्‌

जनार्दनकी इस मन्दिरमे स्थापना करके मैं यह मन्दिर आपको

ही सौंपकर चला आऊँगा। आप ही इसमें पूजा आदिकी व्यपत्था

करतो | यह सब सुनकर राजा गार बहुत प्रसन्न हुए |

इखयुप्नने जो-नो आदेश दिवा, उसका वे बड़ी शीमताके

साय पालन करने छने । इस प्रकार सव सामग्री जुट जानेफर

देवतास धिरे हुए. सिंहासनपर विराजमान राजा इन्द्रयुम्न

हस्द्रकी मति शोभा पाने लगे । इतनेमें ही देवताओंके जय-

जयकारते स्तुति किये जाते हुए. साश्चात्‌ बद्मानी दिखायी

बड़े । राजा इल्द्रयुश्नने दोनों हाथ जोड़कर भक्तिभावसे उन्हें

मस्तक झुकाया तथा गाकूराज और नारदजीके साथ भूमिपर

सिर रखकर साष्टं प्रणाम किया | फिर उठकर प्रसन्नताका

अनुभव करते दुए. अपनेकों कृतार्थं माना । उस सम्रय उनके

सब अज्ञॉम रोमाञ्च हो आया था ।

औैमिनिजी कहते हैं--राजा इन्द्रयुल्रको अपने चरणों -

में प्रणाम करते देख प्रजापति ब्रक्षाजीने मुखकराते हुए कदा--

धाजन्‌ | अपना सौभाग्य तो देखो--ये सब देवता, ऋषि,

पितर और सिद्ध-विद्याधर आदि मुझ्ले आगे करके तुम्हारे लिये

यहाँ एकत्र हुए हैं |! ऐसा ककर ब्रह्माजी शीघ्र दी भगवान्‌

नारायणके रथे खमीप गये और उन जगदीशजीकों प्रणाम

करके तीन भार परिक्रमा करनेके पश्चात्‌ आनन्दके समुद्रमें

निमग्न हो गये। उनके शरीरम रोमाआ हो आया । उन्होने

गद्रद स्वरम अपने ही स्वरूपभूत मगवान्‌ जगन्नापक्री इस

प्रकार स्तुति कौ--पमो ! आपको नमस्कार दै । मैं आप हैं

और आप मैं हूँ । यह सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ आपका ही

स्वरूप है । महततत्क्से लेकर सम्पू प्राकृत जगत्‌ आपकी दी

मायाका विरास है। विश्वात्मन्‌ ! यद संसार आपमें ही

अध्यस्त ( आरोपित ) है और आपके ही द्वारा इसमें

परिणाम ( परिवर्तन अथवा बिफार ) होता है। यह

सम्पूर्ण प्रप्थ। ओ भासित हो रहा दे, आपके तत्त्वको

न जाननेके कारण ही है । आपके स्वरूपका यथार्थ बोध हो

आनेपर यद आपमें दी विलीन हो आता है । ठीक उसी तरद

जैसे रज्जुके स्वरूफका निश्चय हो आनेपर उसमें भ्रमवश्च

प्रतीत होनेवाला स' यहीं छीन हो जाता है । सत्ताके विचार-

से यह ख्व कुछ सत्खरूप होनेके कारण अनियंचनीय ही दे ।

# शरणं व्रज सर्वेशं सृत्युंपमुमापतिम्‌ #

[ संक्षिप्त स्कन्दपुराण

परमो ! आप अद्वितीय हैं। ज़गतकों आपसे ही प्रकाश मिरूता

है, आप स्यंग्रकरश हैं। आपको नमस्कार हे । संसारका

निराश हैं। आप स्थूल हैं; सूक्म हैं; अणु हैं ओर मदान्‌

हैं; साथ ही आप स्थूछ, दुह आदि सभी भेदोंसे रहित हैं ।

गुणोंसे अतीत होकर भी समस्त गुर्णोके आधार हैं ।

तरिगुणात्मन्‌ | आपको नमस्कार है। मैं आपके नामिकमलसे

उत्पन्न हुआ हूँ । जैसे इस ब्क्षाण्डके मध्य मैं सथ्टिकर्ममे

स्माया गया हूं, वैसे आपके एक-एक रोममें ब्रक्षाण्ड हैं और

उन अक्षाण्डोमें मुझ-जेसे करोड़ों न्मा हैं। आपकी महिमा

अवन्त्व द, आपको नमस्कार है। आपका स्वरूप चिन्मय है;

आपको यार-बार नमस्कार है। आप देषताभोके अधिदेवता

हैं, आपको नमस्कार है। देभदेष ! आपको नमस्कार हे ।

दिन्य और अदिन्य खरूपे आपको नमस्कार दे । दिव्य

रूपम प्रकट दोनेबासे आपको नमस्कार है| आप जय और

सृस्युसे रहित तथा सृत्युरूप हैं; आपको नमस्कार है । आप

सृत्युकी भी मृत्यु ई, श्रणागतोकी सृत्युका नाश करनेवाले

है, सदन आनन्द आपका स्वरूप रै, भक्ति आपको प्रिय ह,

आप जगतूके माता और पिता हैं; आपको बार-बार नमस्कार दे।

शरणागतोंकी पीड़ाका नाश करनेके लिये सदा उद्योग करने-

बाछे प्रम ! आपको नमस्कार है । आप दीनोंके प्रति कर्णा-

के स्वाभाविक समुद्र हैं, आपको बार-बार नमस्कार है।

आप पर हैं, पररूप हैं तथा परपार ( भवसागरके

दूसरे पार ) हैं; आपको नमस्कार है। निनो कई पार

नहीं मिलता उसके पारस्वरूप आप ही हैं, आप दी नद्यरूप

हैं, आपको नमस्कार है। आप परमार्थस्वरूप तथा प्ट

( उत्कृष्ट कारण ) हैं, आपको नमस्कार दै । परम्परासे न्यास

परमतत्त्यगें तत्पर रइनेवाले आपको नमस्कार दै । प्रणतजनों-

के दुःखका- संहार करनेवाले आपको नमस्कार है। नाथ !

यदि आप प्रसन्न हों; तो मेरे लिये कौन-सी वस्तु दुर्लभ है!

अशानरूपी अन्धकारसे आच्छन्न हुए, इस विश्वरूपी कायगार-

के भीतर भुक्तिकी इच्छे भरटकनेवात्म मनुष्य आपके सिवा

और कोई द्वार नहीं पाता। आप सम्पूर्ण विश्वके लिये

एकमात्र वन्दनीय है, आपको नमस्कार दै । देवता और दानव

सभी आपके चरणारविन्दोंकी अर्चना करते हैं, आपको

ममस्कार दै । आप सन्ताप हरेक लिये एकमाप्र चन्द्रमा ई,

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