आचान्तः पुनराचाप्रेदयंगौरति मन्क्रत:॥ ९॥
भोजनोपरान्त " अमृतापिधानमसि" मन्त्रोघ्नारणपूर्वक जल
पौना चाहिए। उसके उपगत "अयं गौः" मत्र से पुनः
आवपन् करना चाहिए।
दुपदां वा त्िरावर्त्य सर्वपापप्रणाशनी प्।
प्राणानां ग्रिरसीत्यालपेदुदरं तत:॥ १०॥
सर्वपापनाशक “दुपदा' मन्त्र की तीन बार आवृत्ति करके
फिर ' प्राणानां ग्रन्थिरसि' मन्त्र से उदर को स्पर्श करता
अंगुष्ठयात्र जल से आचमन करके, उसे दक्षिणपाद के
अंगूठे पर गिराना चाहिए, फिर एकाग्रचित्त होकर हाथों को
ऊपर उठाना चाहिए। तय 'सम्ध्यायां' इस मन्त्र से पूर्वकृत
का अनुस्मरण करना चाहिए। इसके अनन्तर “ब्राह्मण' इस
मत्र से अपनों आत्मा को अक्षर-ग्रह्म के साथ जोड़ता
चाहिए।
सर्वेणपेव योगानामात्मयोग: स्मृतः परः।
वोऽनेन विधिना कुर्बोत्म कविरबाह्मणः स्वयम्॥ १३॥
सभो योगो में आत्मयोग को श्रेष्ठ माना गया है। जो
उपर्युक्त विधि के अनुसार आत्म का संयोजन करता है, वह
विदान् स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।
ग्रज्नोपवीतो भुञ्जीत सखरणखालंकृतः शुचिः।
सायग्रातर्नान््तरा वै सख्यायान्तु विज्ञेषतः॥ १४॥
यज्ञोपवीत धारण करके, पवित्र होकर चन्दनादि गन्ध से
अलंकृत होकर और माली धारण करके भोजन करना
चाहिए और बह भी सावं और प्रातः भोजन करें अन्य समय
में भोजन नहीं करना चाहिए। विशेषकर सध्याकाल में तो
भोजन अवश्य नहीं करना चाहिए।
नाशात्सूर्यपरहात्यूव॑ प्रतिसायं शश्िप्रह्मत्।
कहकाले न चाइनीयात्स्तात्वाश्नीयाद्विपुक्तवे॥ १५॥
उसी प्रकार सूर्यग्रहण से पूर्व कुछ समय पहले भोजन
नौ करना चाहिए और चन्द्रग्रहण से पूर्व भौ सायंकाल में
भोजन न करें। ग्रहण काल में भी भोजन न करें, परन्तु ग्रहण
कूर्पपहापुराणप्
समानि के अनन्तर स्नानं करने के पश्चात् भोजन करना
चाहिए।
प्ते शशिनि चाश्नीयाशदि न स्वान्यहानिशा।
अपुक्तयोरस्तगयोरचाददृष्वा परेऽहनि।। १६॥
चन्द्रग्रहण छूट जाने पर यदि वह मध्यरात्रि का समय न
हो, तरो भोजन किया जा सकता है अर्थात् पध्यगत्रि के
समय भोजन नहीं करना चाहिए। यदि ग्रहण से मुक्त हुए
विना ही चन्द्र अधवा सूर्य अस्त हो जते हैं तो दूसरे दिन
ग्रहण से भुक्त हुए चन्द्र अथवा सूर्य के दर्शन करने के बाद
हो भोजन करना चाहिए।
नाएनीयातोक्षपाणानामप्रदाय च दुर्पति:।
य्ज्ञावशिष्टमह्ाद्वा च क्रुद्धो मान्वपायसः॥ १७॥
भोजन के समय जो (भूखा व्यक्ति) हमारी ओर देख रहा
हो, उसे बिना दिए भोजन नहीं करना चाहिए। ऐसा न करते
वाला अर्थात् भोजन बिना दिए स्वयं खाने वाला दवद
माना जाता है अथवा पञ्चमहायज्ञ करने के उपरान्त ही जो
अन्न शेष रहता है उसे ही खाना चाहिए और ऋ्रोधयुक्त और
अन्यमनस्क होकर नहीं खाना चाहिए।
आत्मायं भोजनं यस्य रत्यर्व यस्य मैधुनम्।
वृ््र्धं यस्य चाधोतं मिष्छलं तस्वा जीवितमृ॥ १८॥
जो मनुष्य केवल अपनी तृप्ति के लिए ही भोजन पकाता
है, जो मैथुन केवल रति के लिए हो अर्थात् सन्तान प्रामि के
उद्देश्य से रहित मात्र आनन्द के लिए ही करता है और जो
धन कमाने के लिए ही अध्ययन करता है उसका जीवन
व्यथं ही होता है।
वदत्त वेष्टितशिरा यच धुझ्क्ते हुदइयुख:।
सोपानत्कश्च यो धुदकते सर्वं विघठा्तदामुरम्॥ १९॥
जो मनुष्य अपने मस्तक को ढँक कर (पगड़ी या टोपी
पहनकर) उत्तर दिशा की ओर मुख करके, सीढ़ी पर बैठ
कर भोजन करता है, वह सब उसका भोजन राक्षसो के लिए
ही जानना चाहिए।
नार्ड्रात्रे = मख ाजीर्णे नाईवस््रपूकू।
ज च पिन्नासनगतों न वानसंस्ितोऽपि वा॥ २०॥
आधौ रत को, मध्याह्काल में, अजीर्णं ( बदहजमी) के
समय, गीते कपड़े पहनकर, टूटे हुए आसन पर तथा किसी
भी वाहन पर बैठे हुए भोजन नहीं करना चाहिए।