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* पुराणं परमं पुण्य भविष्य॑ सर्वसौख्यदम्‌ +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

भावी किसी भी प्रकार नहीं टल सकती ' । कोई शोक-विड्डल

होकर आँसू टपकाता है, कोई ेता है, कोई बड़ी प्रसन्नतासे

नाचता है, कोई मनोहर गीत गाता है, कोई धनके लिये अनेक

उपाय करता है, इस तरह अनेक प्रकारके जालकी रचना करता

रहता है, अतः यह संसार एक नाटक है और सभौ प्राणिवर्ग

उस नाटकके पात्र हैं।'

इतना उपदेझ देकर भगवानने रानीका हाथ पकड़कर

कहा--नारदजी ! तुमने विष्णुकी माया देख ली। उदो !

अब स्रानकर अपने पुत्र-पौत्रोंको अर्ध्यं देकर औरध्वदेहिक

कृत्व करो। यह माया विष्णुने स्वयं निर्मित की है।' इतना

कहकर उसी पुण्यतीर्थमे नरदको स्नान कराया । लान करते ही

खी -रूपको छोड़कर नारदमुनिने अपना रूप धारण कर लिया ।

राजानि भी अपने मन्त्री ओर पुरोहितोकि साथ देखा कि

किये हुए, खड़ाऊँके ऊपर स्थित एक तेजस्वी मुनि हैं, यह मेरी

रानी नहीं है । उसी समय भगवान्‌ नारदका हाथ पकड़कर

आकाइ-मार्गसे क्षणमात्रमें श्वेतद्वीप आ गये।

भगवानले नारदसे कहा--देवर्षि नारदजी ! आपने

मेरी माया देख ली। नारदके देखते-देखते ऐसा कहकर

भगवान्‌ विष्णु अन्तर्हित हो गये । देवर्षि नारदजीने भी हँसकर

उन्हें प्रणाम किया और भगवान्‌की आज्ञा प्राप्त कर तीनों

सतेकोम घूमने छगें। महाराज ! इस विष्णुमायाका हमने

संक्षेपरमें वर्णन किया । इस मायाके प्रभावसे संसारके जीव,

पुत्र, सख, धन आदिमे आसक्त हो रोते-गाते हुए अनेक

प्रकारकी चेष्टा करते हैं।

(अध्याय ३)

संसारके दोषोंका वर्णन

महाराज युथिष्ठिरने पूछा--भगवन्‌ ! यह जीव किस

कर्मसे देवता, मनुष्य और पशु आदि योनियॉँमें उत्पन्न होता

है ? बालभावमें कैसे पुष्ट हेता है ओर किस कर्मसे युवा होता

है? किस कर्मके फलस्वरूप अतिशय भयंकर दारुण

गर्भवासका कष्ट सहन करता है ? गर्भमे क्वा खाता है ? किस

कर्मसे रूपवान्‌, धनवान्‌, पष्डित, पुत्रवान्‌, त्यागी और कुलीन

होता है ? किस कर्मसे रोगरहित जीवन व्यतीत करता है ?

कैसे सुखपूर्वक मरता है ? शुभ और अशुभ फलका भोग

कैसे करता है ? हे विमलमते ! ये सभी विषय मुझे बहुत ही

गहन मालूम होते हैं ?

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा--सहाराज ! उत्तम कर्मोंसे

देवयोतनि, सिश्रकर्मसे मनृष्ययोति और पाप कर्म पशु आदि

योनियॉमें जन्म होता है। धर्म और अधर्मके निश्चयम श्रुति ही

प्रमाण है। पापसे पापयोनि और पुण्यसे पुण्ययोनि प्राप्त

होती है।*

ऋतुकालके समय दोषरहित शुक्र बायुसे प्रेरित स्त्रीके

रक्तके साध मिलकर एक हो जाता है। शुक्रके साथ ही क्कि

१-षालमाविषातु

अनुसार प्रेरित जीवयोनिमे प्रविष्ट होता है । एक दिनमे शुक्र

और शोणित मिलकर कलल वनता है । पाँच रातमें वह

कलल बुद्दुद हो जाता दै । सात रातमें बुदुद मांसपेशी वन

जाता है। चौदह दिनम वह मौसपेङी मांस और रुधिरसे व्याप्त

होकर दृढ़ हो जाता है । पचीस दिनोम उसमे अद्भुर निकलते

है । एक महीनमें उन पाँच-पाँच भाग-- ग्रीवा, सिर,

कंधे, पृष्ठबेश तथा उदर हो जाते है । चार मासमे वही

भाग अंगुली बन जाता है। पाँच महीनेमें मुख,

नासिका और कान बनते है । छः महीनेमे दन्तपंक्तियाँ, नख

और कानके छिद्र बनते है । सातवें महीनेमे गुदा, लिश्ग अथवा

योनि और नाभि बनते है, संधियाँ उत्तर होती हैं और अङ्गम

संक्ेच भी होता है। आठवें महीनेमें अङ्ग-्त्यङ्ग सब पूर्ण हो

जाते हैं ओर सिरमें केश भी आ जाते हैं। माताके भोजनका

रस नाभिके द्वार बालकके शरीरमें पहुँचता रहता है, उसीसे

उसका पोषण होता है। तब गर्भमें स्थित जीव सब सुख-दुःख

समझता है और यह विचार करता है कि "मैने अनेक योनियोमें

जन्म लिया ओर बारेवार मृत्यके अधीन हुआ और अब जन्म

क्षितिघराधिपति सुमेरुम्‌।

सुरेद्रल्थेकमारोहतु

मन्त्रौषधिफ्रहरणैल्ष करोतु रक्षा यद्भाति तत्भवति साथ विभावितोजश्पि ॥ (उत्तरपर्व ४ । ९५)

२-शुदेवत्वमपमोति = बित्रमतुपतौ ब्रजेत्‌ । अशुभ:

श्रुनिरेवात्

जायते ४

कर्मभिर्जन्तुस्तिर्यश्पोनिषु

धर्मांघर्मविनिश्षये । पाप॑पापेत भवति पुण्यं पुण्येन कर्मणा ॥ (उत्तरपर्व ४ ॥ ६-७)

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