रके
* संक्षिप्त श्रीवराहपुराण *
[ अध्याय १३७
इसपर काञ्चीनेशकी उस कन्याने अपने
पतिदेवके चरणोंकों पकड़कर यह बात कही--
"पतिदेव! मैं रत्न, हाथी, घोड़े एवं रथ कुछ भी
नहीं चाहती । आपके पट्टबन्धसे मेरा क्या प्रयोजन ?
मैं तो केबल यही चाहती हूँ कि मध्याह्कालमें
एकान्तमें निश्चिन्त सो सकूँ। प्राणनाथ ! आप ऐसी
व्यवस्था कर दें कि मैं उस समय जितनी देरतक
सोयी रहूँ, उस समय मुझे मेरे श्वशुर, सास अथवा
दूसरा कोई भी देख न सके--यही मेरा त्रत है।
यही नहीं अपने सगे-सम्बन्धी अथवा घरके अन्य
स्वजन भी सोयी हुई अवस्थामें मुझपर कभी दृष्टि
न डालें।'
बसुंधरे! इसपर कलिङ्गदेशके उस राजकुमारने
उसका समर्थन कर दिया और कहा-'तुम
विश्वास करो, सोते समय तुम्हें कोई भी न
देखेगा।! कुछ समयके बाद कलिङ्गनेशने उस
राजकुमारको राज्यपदपर अभिषिक्तं कर दिया।
फिर कुछ दिनोंके पश्चात् उनकी मृत्यु हो गयी।
अब राजकुमार राज्यका विधिपूर्वक समुचित
ढंगसे संचालन करने लगा। राजकुमारी जिस
स्थानपर अकेली सोती, वहाँ उसे कोई देख नहीं
पाता था। फिर यथासमय उस राजकुमारके
कलिङ्ग - कुलको आनन्दित करनेवाले सूर्यके समान
तेजस्वी पाँच पुत्र उत्पन्नं हुए। इस प्रकार उस
राजकुमारके निष्कण्टक राज्य करते हुए सतहत्तर
वर्ष बीत गये। अठहत्तरवें वर्ष एक दिन जब सूर्य
मध्य आकाशे स्थित थे, तब वह एकान्तमें
बैठकर इन बातोंको प्रारम्भसे सोचने लगा। उस
दिन माघमासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथि थी,
अत: उसके मनमें आया कि “मैं अपनी पत्नीको
देखूँ कि वह एकान्तमें किसकी अर्चना करती है
अथवा उसका व्रत कौन-सा है? निर्जनस्थानमें
सोती रहकर क्या करती है? कोई स्त्री सोकर
त्रत करे, ऐसा तो कोई धर्म-संग्रह नहीं दीखता
है। मनुने भी किसी ऐसे धर्मका उल्लेख नहीं
किया। बृहस्पति अथवा धर्मराजके बनाये हुए
धर्मोपि भी करीं इस प्रकारका उल्लेख नहीं पाया
जाता है । ऐसा तो कहीं देखा-सुना नहीं गया कि
कोई स्त्री सोयी रहकर व्रतका आचरण करे । यह
तो इच्छानुसार भोर्गोका उपभोग करती-बना-
बनाया भोजन-पान करती और अत्यन्त महीन
रेशमी वस्त्र धारणकर श्रेष्ठ गन्धोसे विभूषित तथा
सब प्रकारके रत्नोंसे अलंकृत रहती है । पर सम्भव
है, इस प्रकार देखनेपर वह प्रकुपित हो जाय, पर
जो कुछ हो उसे एक बार देखना अवश्य चाहिये
कि वह किस प्रकार कौन-सा व्रतं करती है?
किंनरोंने बतलाया है कि वशीकरण मन््रको सिद्ध
कर लेनेपर स्त्री योगीश्वरी बनकर जहाँ उसकी
इच्छा हो, जा सकती है । इस प्रकार इसमें वह
शक्ति आ जायगी, जो कामरागसे दूसरेका भी
स्पर्शं कर सकती है तथा दूसरोंसे इसका भाव भी
हो सकता है ।'
पृथ्वि ! इस प्रकार राजकुमारके सोचते- विचारे
सूर्य अस्त हो गये और सबको विश्राम देनेवाली
भगवती रात्रिका आगमन हुआ। फिर रात्रि
बीतनेपर मङ्गलमय प्रभातका भी उदय हुआ।
मागध, वन्दीगण, सूत और वैतालिक राजाकौ
स्तुति करने लगे। शङ्खं और दुन्दुभिकौ ध्वनियोँसे
उसकी निद्रा भङ्ग हुई । इधर अखिललोकनायक
भगवान् भास्कर भी उदित हो गये। उस समय
पहलेकी बातोंका स्मरण करते हुए राजकुमारके
मने अन्य कोई चिन्ता नहीं रह गयी थी, केवल
बहौ चिन्ता उसके हृदयमें व्याप्त धी। उसने
विधिपूर्वक स्नानकर दो रेशमी वस्त्र पहन लिये ।
इस प्रकार भलीभाँति तैयार होकर उसने सबको
दूर हटा दिया और कहा कि “मैं किसी ब्रतमें