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प्रवाहित होती है। इसीसे परम उत्तम जाम्बूनद

सुवर्णका प्रादुर्भाव होता है। मेरुके पूर्वमे भद्राश्ववर्षं

और पश्चिममें केतुमाल वर्ष है। इसी प्रकार

उसके पूर्वकी, ओर चैत्ररथ, दक्षिणकी ओर

गन्धमादन, पश्चिमकी ओर वैभ्राज और उत्तरकी

ओर नन्दन, नामक वन है। इसी तरह पूर्व

आदि दिशाओंमें अरुणोद्‌, . महाभद्र, शीतोद

ओर मानस-ये चार सरोवर है । सिताम्भ तथा

चक्रपुञ्ज आदि (भूपद्मकी कर्णिकारूप) मेरुके

पूर्व-दिशावर्ती केसर-स्थानीय अचल हैँ । दक्षिणमें

त्रिकूट आदि, पश्चिममें शिखिवास-प्रभृति ओर

उत्तर दिशामें शङ्घकूट आदि इसके केसराचल हैं।

सुमेरु पर्वतके ऊपर ब्रह्माजीकी पुरी है। उसका

विस्तार चौदह हजारे योजन है । ब्रह्मपुरीके चारों

ओर सभी दिशाओंमें इन्द्रादि लोकपालोके नगर

हैं। इसी ` ब्रह्मपुरीसे ` श्रीविष्णुके चरणकमलसे

निकली हुई गङ्गानदी चनद्रमण्डलको आप्लावित

करती हुई स्वर्गलोकसे नीचे उतरती है ।

पूर्वमे शीता (अथवा सीता) नदी भद्राश्वपर्वतसे

निकलकर एक पर्वतसे दूसरे पर्वतपर जाती हुई

समुद्रमें मिल जाती है। इसी प्रकार अलकनन्दा

भी दक्षिण दिशाकी ओर भारतवर्षे आती है

और सात भागोंमें विभक्त होकर समुद्रम मिल

जाती है॥ ७ --२०॥

चक्षु पश्चिम समुद्रम तथा भद्रा उत्तरकुरुवर्षको

पार करती हुई समुद्रे जा गिरती है। माल्यवान्‌

और गन्धमादन पर्वत उत्तर तथा दक्षिणकी ओर

नीलाचल एवं निषध पर्वततक फैले हुए हैँ । उन

दोनोंके बीचमें कर्णिकाकार मेरुपर्वत स्थित है।

मर्यादापर्वतोंके बहिर्भागमें स्थित भारत; केतुमाल,

भद्रश्च और उत्तरकुरुवषं -इस लोकपद्यके दल

है । जठर और देवकूर -ये दोनों मर्यादापर्वत हैँ ।

ये उत्तर और दक्षिणकी ओर नील तथा निषध

पर्वततक फैले हुए है । पूर्व ओर पश्चिमकौ ओर

विस्तृत गन्धमादन एवं कैलास -ये दो पर्वत

अस्सी हजार योजन विस्तृत है । पूर्वके समान मेरुके

'पश्चिमकी ओर भी निषध और पारियात्र नामक दो

मर्यादापर्वत हैं, जो अपने मूलभागसे समुद्रके

भीतरतक प्रविष्ट है ॥ २१-२५॥

उत्तरकौ ओर त्रिशृङ्ग ओर रुधिर नामक

वर्षपर्वत हैं। ये दोनों पूर्वं ओर पश्चिमकी ओर

समुद्रके गर्भमें व्यवस्थित हैं। इस प्रकार जठर

आदि मर्यादापर्वत मेरुके चारों ओर सुशोभित

होते है । ऋषिप्रवर! केसरपर्वतोके मध्यमे जो

श्रेणियाँ हैं, उनमें लक्ष्मी, विष्णु. अग्नि तथा सूर्य

आदि देवताओंके नगर हैं। ये भौम होते हुए भी

स्वर्गके समान हैँ । इनमें पापात्मा पुरुषोंका प्रवेश

नहीं हो पाता॥ २६--२८५, ॥

श्रीविष्णुभगवान्‌ भद्राश्ववर्षमें हयग्रीवरूपसे,

केतुमालवर्षमें वराहरूपसे, भारतबर्षमें कुर्मरूपसे

तथा उत्तरकुरुवर्षमें मत्स्यरूपसे निवास करते हैं।

भगवान्‌ श्रोहरि विश्वरूपसे सर्वत्र पूजित होते हैं।

किम्पुरुष आदि आठ वर्षोर्मे क्षुधा, भय तथा

शोक आदि कुछ भी नहीं है। उनमें प्रजाजन

चौबीस हजार वर्षतक रोग-शोकरहित होकर

जीवन व्यतीत करते हैं। उनमें कृत-त्रेतादि

युगोंकी कल्पना नहीं होती; न उनमें कभी वर्षा

ही होती है। उनमें केवल पार्थिव-जल रहता है।

इन सभी वर्षोंमें सात-सात कुलाचल पर्वत हैं

और उनसे निकली हुई सैकड़ों तीर्थरूपा नदियाँ

हैं। अब मैं भारतवर्षमें जो तीर्थ हैं, उनका तुम्हारे

सम्मुख वर्णन करता हूँ॥ २९--३३॥

इस कार आदि आग्नेय महाएुराणमें “ भुवनकोशषका वर्ण ” त्रामक

एक सौ आठवाँ मध्याय पूरा हुआ॥ १०८॥

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