देथ ऋग्वेद संहिता भाग-९
वे प्रार्थनाएँ सूर्यरूप विरेक देव की महिमायुक्त सामर्थ्यं को विशेष रूप से बढ़ाती हैं । विष्णुदेव अपनी उस
क्षमता को उत्पादकता एवं उपयोग के लिए, धावा और पृथ्वीरूपी दो माताओं के बीच प्रतिष्ठित करते है । जिस
प्रकार प अपने पिता के तीनों प्रकार के गुणों को धारण करता है, उसी प्रकार विष्णुदेव अपने सभी प्रकार के
गुणों को में स्थापित करते हैं ॥३ ॥
१६३७ तत्तदिदस्य पौँस्यं गृणीमसीनस्य त्रातुरवृकस्य मीढ्हुषः ।
यः पार्थिवानि त्रिभिरिद्विगामभिरुरु क्रमिष्टोरुगायाय जीवसे ॥४ ॥
जिन सूर्यरूप विष्णुदेव ने अपने मार्ग का विस्तार करने तथा जीवनीशक्ति (प्राण-ऊर्जा) संचरित करने
के लिए सभी विस्तृत लोकों को मात्र तीन परो से नाप लिया; ऐसे संरक्षक, शत्रुरहित (अजातशत्रु, सुखकारक
तथा सभी पदार्थो के स्वापी विष्णुदेव के उन सभी पराक्रम-पूर्ण कार्यों की सभी प्रशंसा करते हैं ॥४ ॥
१६३८ द इदस्य क्रमणे स्वर्दृशोऽभिख्याय मर्त्यो भुरण्यति ।
तृतीयमस्य नकिरा दधर्षति वयश्चन पतयन्तः पतत्रिणः ॥५ ॥
मनुष्य के लिए तेजस्वितायुक्त, विष्णुदेव के (पृथ्वी और अन्तरि रूपी) दो पगों का परिचय पाना सम्भव है,
लेकिन (द्युलोक रूपी) तीसरे पग को किसी के भी द्वारा जानना असम्भव है । सुदृढ़ पंखों से युक्त पक्षी भी उसे
नहीं जान सकते ॥५ ॥
१६३९. चतुर्भिः साकं नवतिं च नामभिश्षक्र न वृत्त व्यर्तीरवीविपत् ।
बृहच्छरीरो विमिमान ऋक!वभिर्युवाकुमारः प्रत्येत्याहवम् ॥६ ॥
सूर्य रूप यू चा चार सहित नन्वे अर्थात् चौरानवे कोछ् गणना के अवयवो को [१ संवत्सर (वर्ष, २
अयन (उत्तरायण - पंच ऋतु, ९२ मास, २४ पक्ष एवं ३० दिन-रात्रि ८ याम्. १२ मेष
वृश्चिकादि राशियाँ, कुल ९४ काल गणना के अवयव है ] अपनी प्रेरण, चक्राकार (गोल चक्र के समान)
रूप में घुमाते हैं। विशाल स्वरूप धारी, सदा युवा रूप, कभी क्षीण न होने चाले, सर्प विष्णुदेव काल की गति
को प्रेरित करते हुए ऋचाओं द्वारा आयाहन किये जाने पर यज्ञ की ओर आरै (अर्थात् सृष्टि क्रम के विरार्
यज्ञ को सम्पन्न कर रहे हैं) ॥६ ॥
[सूक्त - १५६ ]
[ ऋषि- दीर्घतमा ओचध्य । देवता- विष्णु । छन्द- जगती ।]
१६४०. भवा मित्रो न शेव्यो धृतासुतिर्विभूतद्युम्न एवया उ सप्रथाः ।
अथा ते विष्णो विदुषा चिदर्ध्यः स्तोमो यज्ञश्च राध्यो हविष्यता ॥९ ॥
हे विष्णुदेव ! ! आप जल के उत्पादनकर्ता, अति देदीप्यमान, सर्वत्र गतिशील. अतिव्यापक् तथा मित्र के कैदश
ही हितकारी सुखो के प्रदाता हैं । हे विष्णुदेव ! इसके पश्चात् पुष्यो द्वारा हविष्यात्र समर्पित करते हुए सम्प्र
किया गया यज्ञ स्तुदि योग्य है । ज्ञान सम्पन्न मनुष्यों द्वारा आपके प्रति कहे गये स्तोत्र सराहनीय है ॥१ ॥
[ यज्ञ रूप विष्णु द्वारा प्रद सायन यज़ में प्रपुक्त हों तथा वुद्धि उन्ही के पहत्च को प्रतिपादित करें, तथी वे दोनों
सराहनीय है । }
१६४१. यः पूर्व्याय वेधसे नवीयसे सुमज्जानये विष्णवे ददाशति ।
यो जातमस्य महतो महि ब्रवत्सेदु श्रवोभिर्युज्यं चिदभ्यसत् ॥२ ॥
जो अनन्तकाल से ज्ञानरूप एवं सदा नवौन दौखते हैं तथा जो सदबुद्धि के प्रेरक हैं, उन विष्णुदेव के लिए
हविष्यात्र अर्पित करने वाले मनुष्य कीर्तिमान् होकर श्रेष्ठ पद को प्राप्त करते है ॥२ ॥ ह