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२४० ] [ ब्रह्माण्ड पुराण

पाटल उसका अपना कलेवर था जिससे प्रभा झर रही थी । वह अपने मुख

की कान्तियों को दिशाओं में कीर्ण कर रही थी । ऐसा प्रतीत होता था

मानो वह अध्रमण्डल को तनद्रों से परिपूर्ण बना रही हो ।२। शशि मण्डल

की सविता को प्राप्त होने वाला उसक्रा परम धवल आतपत्र था जिसका

आयतन दशयोजन था ओर तीनों लोकों का अभिवरण करने वाला था।

उसका स्वरूप परम स्वच्छ मोक्तिक के सहश था | ऐसे धवल छत्र से वह

परमाधिक भासुर हो रही थी ।३। विजया आदि प्रमुख परिचारिकाओं के

समुदाय के द्वारा चार चमरों से वहु अभिवीजित हो रही थी जो चमर मणि

के समान कान्ल और शोभा बाले थे तथा नवीन चन्द्रिका की लहरी की

कान्ति एवं चार कदालियों की कान्ति के समान थे ।४। वह अपनी शक्ति से

एक ही राज्य की पवी को अभिसूचित कर रही थी और सैकड़ों साम्राज्य

के चिन्हो से उसका सैन्य देश मण्डित था । देवांगनाओं के संगीत ओर वाद्य

रचनाओं के द्वारा उसके वैभव का संस्तवन किया जा रहा था एवं वह परम

विशद प्रकाश वाली थी ।५। उसका शक्ति वेभव वाणी के तो अगोचर था

ही किन्तु वह बुद्धि के भी अगोचरया। वह ऐसी है--इस तरह कथन के

योग्य तथा बुद्धि में बैठने के योग्य नहीं है और उसकी तुल्यता रखने वाला

कोई भी नहीं है ।६। तीनों लोकों के मध्य में परिपूरित शक्ति चक्र और

साम्राज्य की सम्पदा है उसके अभिमान का अभिस्पर्शन करती हुई थी ।

पंक्तियों वद्ध तथा दोनों करों को विपुल भक्तिभाव में जोड़कर मस्तकों पर

लगाने वाले देवगण समीप में प्रभम पहुँचाकर सेवा करू--ऐसी रीति से

बह सेवमाना भी ।७।

ब्रहमेणविष्णुवृष मुख्यसू रोत्तमानां वक्त्राणि बपितनुतीति

कटाक्षयन्ती ।

उद्दीप्तपुष्पश रपंचकत: समूत्थंरज्योतिमयं त्रिभुवनं

सहसा दधाना ॥८

विद्युत्समद्यु तिभिरप्सरसां समू है विक्षिप्य-

माणजयमंगललाजवर्षा ।

कामेषव रीप्रभृतिभिः कमनीयभाभिः

संग्रामवेषरचनासुमनोहराभिः €

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