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ग्रात्त नहीं करते। जिसमें विमुक्त लोग विश्वत्मा ईश्वर को

साक्षात्‌ देखा करते हैं, वह योग सभी योगो में परम श्रेष्ठ

माना गया है। सहसरा ओर बहुत से जो ईश्वर के द्वारा

बहिष्कृत संयतचित्त वाले योगीजन हैं, वे एक मुझ को नहीं

देखते हैं अर्थात्‌ मुझको स्थिर चित्त वाले योगीजन ही देखा

करते हैं।

प्राणायापस्तवा ध्यान॑ प्रत्याहारोऽथ धारणा

सपाधिक्ष मुनिश्रेष्ठा यमक्ष नियमासने॥ ११॥

अय्येकचित्तता योग: प्रत्यन्तरनियोगतः

तत्साधनानि चान्यानि युष्माकं कथितानि तु॥ १२॥

है मुनिश्रेष्ठो! प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, धारणा और

समाधि, यम, नियम ओर आसन यह योग कहा जाता है।

प्रत्यन्तर नियोग से अर्थात्‌ अन्य में से वृत्तयो का निरोध

करने से यह योग साध्य होता है। इसके सिद्ध करने के अन्य

साधन होते हैं जो मैंने आपको बता दिये हैं।

अहिंसा सत्यपस्तेयं व्रल्चर्यापरित्रहौं।

यपा: संक्षेपत: प्रोक्ताश्चितशुद्धिप्रदा तृणाम्‌॥ १३॥

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह- ये यम संक्षेप

में बता दिये गये हैं। ये मनुष्यों के चित्र को शुद्धि प्रदान

करे वाले हैं।'

कर्पणा पनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा।

अक्लेशजननं प्रोक्ता त्वहिंसा परमर्षिधि:॥ १४॥

कर्म से, मन से, वचन से समस्त प्राणियों में सदा किसो

प्रकार का क्लेश उत्पन्न न करना हौ परम ऋषियों द्वारा

अहिंसा कटौ गईं है।

अर्हिसायाः परो धर्पो नास्त्यहिंसापर॑ मुखम्‌।

विधिना या धवेद्धिसा त्व्हिसैवं प्रकीर्तिता ॥ १५॥

सत्येन सर्वपाप्नोति सत्ये सरव प्रतिष्ठितम्‌।

यथार्धकवनाचारः सत्यं प्रोक्त द्विजातिषिः॥ १६॥

अहिंसा मे परम धर्म अन्य कोई नहीं है और अहिंसा से

बढ़कर कोई सुख नहं है। (यज्ञादि में) जो हिंसा शाख्रोक्त

विधिपूर्वक होती है उसे अहिंसा ही कहा गया है। सत्य से

सव कुछ प्राप्त होता है। सत्य में सब प्रतिष्ठित है। द्विजातियों

। यमनियपाप्तनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोे5शवज्गाति

(यो. सू. २.२९)

2. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा: यमाः। (यो. सूं. २.३०)

कूर्मपह्मापुराणम्‌

के द्वार यथार्थ कथन का जो व्यवहार है, उसी को सत्य

कहा गया है।

परद्रव्यापहरणं चौर्यादव लेन वा।

स्तेयं तस्यानाधरणादस्तेयं धर्मसाधनम्‌॥ १७॥

कर्पणा मनसा वाघा सर्वावस्थासु सर्वदा।

सर्वत्र यैवुनत्यागं वह्नचरय प्रचक्षते॥ १८॥

पराये दृव्य का अपहरण चोरी से अथवा बलपूर्वक किया

गया हो, वह स्तेय (चोरी) है। उसका आचरण न करना हो

अस्तेय है। वही धर्म का साधन है। कर्म, मन और वचन से

सर्वदा सभी अवस्थाओं में सर्वत्र मैथुन का परित्याग ही

ब्रह्मचर्य कहा जाता है।

डब्याणाप्रप्यनादानपापश्चपि त्वेच्छया।

अपरिव्रहमित्याहुस्तं प्रयलेन पालयेत्‌॥ १९॥

तपःस्वाध्यायसन्तोषो

समासाश्रियमा: प्रोक्ता योगप्रिद्धिप्रदाधिन:॥ २०॥

आपत्ति के समय में भौ इच्छापूर्वक द्रव्यो को जो ग्रहण

नहीं करता है, उसे ही अपरिग्रह कहा जाता है। उसका

प्रयतपूर्वक पालन करना चाहिए। तप, स्वाध्याय, सन्तोष,

शौच, ईश्वर का अर्चन- ये ही संक्षेप से नियम कहे गये हैं

इन नियमों का पालन योग की सिद्धि प्रदान करने वाला है।

उपवासपराकादिकृच्छुचाद्रावणादिधि :।

शरीरशोषणं प्राहुस्तापसास्तप उत्तममू॥ २ १॥

पराक आदि व्रत-उपवास तथा कृच्छू-चान्द्रायण आदि

के द्वारा जो शरीर-शोषण किया जाता है, उसी को तपस्वी

उत्तम तप कहते हैं।

वेदान्तशतस्द्रीयप्रणवादिजपं बुघाः।

सन्वसिद्धिकरं पुंसां स्वाध्यायं परिचक्षते॥ २२॥

स्वाध्यायस्य अरयो भेदा वाचिकोपांशुमायसा:।

उन्तरोततरवैशिषट् प्राहुवेदार्थवेदिन:॥ २३॥

वेदान्त, शतरुद्रिय और प्रणव आदि के जप को विद्वान्‌

लोग तप कहते हैं। स्वाध्याय पुरुषों को सत्व सिद्धि प्रदान

करने बाला कहा जता है। स्वाध्याय के भी तीन भेद हैं-

वाचिक, उपांशु और मानस। इन तोनों को उत्तरोत्तर विजञेषता

है, ऐसा वेदज्ञ कहते हैं।

3. शौचससोपलप:स्वाध्याये धरप्रणिधानानि नियपाः।

(यो. सू, २३२)

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