+ रद्रसैहिता # ९६५
व)
महेशरसे मधुसूदन अच्युतने इसीका उनके ऐसा कहनेपर हम दोनों उनसे आज्ञा ले
समर्थन किया ¦ अपनी पत्नी तथा देवताओं और मुनियोके
तश्च भक्तवत्सल भगवाम् दिक्ने साथ अत्यन्त प्रसन्न हो अपने अभीष्ट
हैँसकर कहा, "हुत अच्छा, ऐसा ही होगा ।' स्थानको चले आये । (अध्याय १६)
पर
सहीको शिवसे वरकी प्राप्ति तथा भगवान् शिवका न्रह्याजीको दक्षके
पास भेजकर स्रतीका खरण करना
जह्मप्नी कहते हैं--मुन्ते ! क्धर सतीरे पुलका फल दान करनेवाले महादेखजी
आश्विने मासक चुक़पक्षकी अष्ठभी तिधिको उन्हींके लिये कठोर ब्रत धारणा करनेवाली
उपवास करके भक्तिभाषसे सर्वेश्वर हिक्का सतीको पत्नी खनानेके लिये प्राप्त करनेकी
पूजन किया। इस अ्रक्रार नन््दाव्रत पूर्ण इच्छा रखते हुए भी उनसे इस प्रकार बोले ।
छोनेपर नवमी तिथिको दिनमें ध्यानम हुई महादेवजीने. कहा--उत्तप त्रतका
सतीको भगवान् पवने गत्यक्ष दर्शन दिया। पालन करनेवाली दक्षनन्दिनि ! मैं सुम्हारे
उनका श्रीविग्रह सवङ्गिसुन्दर एवं गौरवर्णका इस त्रतसे यदुत प्रसन्न ह । इसलिये कोई यर
था । उनके पाँच मुख थे और भ्त्येक मुखेम यतो । तुन्हारे मनक जो अभीष्ट होगा, वही
तीन-सीन नेत्र थे। भाल्देदामें चद्धमा शोभा
दे रहा शा। उनका चित्त प्रसन्न था और
कण्ठमें नीर चिह्न दृष्टिगोच्वर होता था।
उनके चारं भुजाएँ थों। उन्होंने हाथोमें
त्रित, ब्रह्मकपाषूछ, वरे तथा अभय धारण
कर रखे थे। भस्ममय अड्गरागसे उनका
सारा रीर उद्धासित हो रहा था। गङ्गाजी
उनके मस्तककी शोभा बढ़ा रही थीं। उनके
सभी अङ्ग जड़े मनोहर थे! ये सहन्
स्प्रबण्यके धाथ्र जान पड़ते थे । उनके सुस्त
करोड़ों चद्रमाओंके सपान प्रकादामान एवं
चरणोंकी वन्दना च्छी । उस सेप्रय उनका
मुख कासे झुका तुजा था) तपस्याके
चर मैं तुम्हें दूँगा ।
अरह्माजी कहते है--मुनै } जगदीक्षर
महादेवजी यद्यपि सतीके मनो भावकों जानते
थे तो भी उनकी ज्ञात सुननेके लिये
खोले--'कोई वर मागो \' परेतु सती
रूश्वाके अधीन हो गयौ थीं; इसलिये उनके
हृदये जो बात थी, उसे वे स्पष्ट झब्दोंसें कह
न सकी । उका जो अभीष्ट मनोरथ था, वह
खच्ासे आच्कादित हो गया । भाणवल्लभ
झिवका भिय क्चन सुनकर सती अत्यन्त
ग्रेममें सभ हो गयीं । इस बातकों जानकर
देनेवाले अथो ! मुझे मेरी इच्छाके अनुसार