काण्ड-५ सूुक्त- १८ २७
जिस प्रकार अपने प्रिय शरीर को कोई विनष्ट नहीं करना चाहता, उसी प्रकार अग्नि स्वरूप ब्राह्मण को विनष्ट
नहीं करना चाहिए । सोम देवता इसके सम्बन्धी हैं और इन्द्रदेव इसके शाप के पालक अर्थात् पूर्ण करने वाले हैं ॥
११०४. शतापाष्ठां नि गिरति तां न शक्नोति निःखिदन्।
अन्नं यो ब्रह्मणां मल्वः स्वाद्ररद्ीति मन्यते ॥७ ॥
जो मलीन पुरुष ऐसा समझते है कि हम ब्राह्मण के अन्न को स्वादपूर्वक खा सकते हैं ( उनके स्वत्व का
अपहरण करे सकते हैं), वे सैकड़ों विपत्तियों को प्राप्त होते हैं । वे उसको मिराना चाहकरे भी नहीं मिटा सकते ॥७ ।
११०५. जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाडनाडीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः ।
तेभि्रह्या विध्यति देवपीयून् हड्लैर्थनुर्भिदेंवजूते: ॥८ ॥
ब्राह्मण की जिह्वा ही धनुष की डोरौ होती है, उसकी वाणी ही कुल्मल (धनुष का दण्ड) होती है । तप से क्षीण
हुए उसके दाँत ही बाण होते है । देवो दरार प्रेरित आत्मबल के धनुषं से वह देव रिपुओं को बौधता है ॥८ ॥
६१०६. ती#णेषवो ब्राह्यणा हेतिमन्तो यामस्यन्ति शरव्यां३ न सा मृषा ।
अनुहाय तपसा मन्युना चोत दूरादव भिन्दन्त्येनम् ॥९ ॥
तप और क्रोध के साध पीछा करके, तौश्ग वाणो तथा अस्तो से युक्त ब्राह्मण, जिन बाणो को छोड़ते हैं, वे
निरर्थक नहीं जाते । वे बाण शत्रु को दूर से हो बो डालते हैं ॥९ ॥
११०७. ये सहस्रमराजन्नासन् दशशता उत ।
ते ब्राह्मणस्य गां जग्ध्वा वैतहव्याः पराभवन् ॥१० ॥
"वीतहव्य ' वंश के (अधवा देवताओं का अंश-हव्य हड़पने वाते) जो हजारो राजा पृथ्वी पर शासन करते
थे, वे ब्राह्मण की गाय (उनके शाप) को खाकर नष्ट हो गए वे ॥१० ॥
११०८. गौरिव तान् हन्यमाना वैतहव्यां अवातिरत् । ये केसरप्राबन्धायाश्चरमाजापपेचिरन्॥
जो बालों की रस्सी से बैध हुई अन्तिम अजा को भी हड़प कर जाते हैं, उन 'बैतहव्यों' को पीरती हुई गौओं
ने तहस-नहस कर टिया ॥११ ॥ है
[ ब्राक्मणगण देववृत्तियों की पुष्टि के लिए हष्य का अज निकालते हैं। यज़ादि प्रक्रिया द्वारा वह हव्य नई पोषक शक्ति को
अपन करते है । द प्रकृति के व्यक्ति उस हव्यस्मप अज-अजन्यी शक्ति को भी हड़पने का प्रयास करते हैं, ऐसी रियति में ब्राहण
की निष्ठा कष्ट पाती है, तब उस उत्पीड़न से उत्पन्न गौ (वाजी-शाप) द्वारा उन दुष्टों को तहस-नहस कर दिया जाता है ।|
११०९. एकशतं ता जनता या भूमिर्व्यधूनुत । प्रजां हिंसित्वा ब्राह्मणीमसंभव्यं पराभवन् ॥
सैकड़ों ऐसे "जन" जिन्होंने (अपने शौर्य से) पृथ्वी को हिला दिया था, वे ब्राह्मण की सन्तानो को मारने के
कारण बिना सम्भावना के ही पराभूत हुए ॥१२ ॥
११९१०. देवपीयुश्चरति मर्त्येषु गरगीर्णो भवत्यस्थिभूयान् ।
यो ब्राह्मणं देवबन्धुं हिनस्ति न स पितृयाणमय्येति लोकम् ॥९३॥
वह नाह्मण देवहिंसक "विष" से जीर्ण होकर (अस्थिमात्र) काया मे विद्यमान रहकर, मनुष्यों के बीच में
विचरण करता है । जो मनुष्य देवों के बन्धुरूप ब्राह्मण की हत्या करता है, वह पितृयान दरार प्राप्त होने वाले लोक
को नहीं प्राप्त होता ॥१३ ॥
११११.अम्निर्वै न: पदवायः सोमो दायाद उच्यते । हन्ताभिशस्तनद्रस्तथा तद् वेधसो विदु:।