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# श्ारणं वज सर्वेदां सृत्युंजयमुमापतिम #

नष्ट हो गया है अथया जो स्वर्गते लौटे रै, वे समस्त

डुर्वल्यसनोंसे मुक्त होकर एकमात्र धर्म आधय लेते हैं ।

इस विषयमे ये श्योक स्मरणीय ईह -

धमं दानहतंसौक्यपरयर्माव्‌ दुः चसम्भवम्‌, ।

तस्मादम सुखारधांय कुर्यात्‌ पापं विवर्जयेत्‌ ॥

छोकडयेऽपि यर्तौश्यं॑तदधर्मारोच्यते यतः ।

धमं एव मषिं कुर्यात सर्यकार्याथलिदये ॥

मुहृतंमषि जीवेदि नरः श्ुक्छेन कर्मणा।

जन कल्पमति जी; छोकद्वयनिरों घेता #

“धर्म और दानसे सुख प्रास होता है और अधघर्मते दुःख-

की उत्पत्ति होती है, अतः सुखके लिये धर्मका आचरण

करें और पापको सर्वथा त्याग दे इस छोक और परलोक दोनों

खोक जो मुख है, उसकी प्राति धर्मते ही बतायी जाती

है; अतः समस्त कायां और मनोरयोंकी सिद्धेके लिये

धर्मम ही मन भवि । मनुप्य दो घड़ी भी पुण्परूम करते

हुए ही जीवे । उभयस्वेकबिरोधी कमे राथ कल्पभर

भी जीनेकी इच्छा न रक्ले |!

विप्रवर ! आपने जो कुछ पूछा है उसका मैंने अपनी

शक्तिके अनुसार कर्णन किया है । यह अस्छा कडा गया हो

या नहीं। उसके छिये आप क्षमा करे । >ब और ज्या कहूँ ।

नारदजी कहते हैँ--आठ वर्षके वाहक फमठका यह

भाषण बुनकर भगवान्‌ सूर्य अत्यन्त विस्मित एवं बहुत

प्रसन्न हुए. । उन्होंने उस समय द्वारीत भादे ब्राक्मणोंकी

इस प्रकार प्रशंसा की “अङो ! ऐसे उत्तम आक्षणोंसे यह

पृथ्वी धन्य है। भगवान्‌ प्रजापति भी धन्य है, जिनकी

मर्वादाका श्न ॐ ब्राह्मणोंद्ारा पाहन दो रहा है । श्न

समय इन भे ब्रहमणेसि चारों वेद भी धन्य शो गये हैं।

जिन ओह्मणोमेंसे एक बालझकी शुद्धि इतनी तीव और

स्पष्ट है; उन हारीत आदि ब्राक्मणोंकी ब्रुद्धि कैसी होगी?

निश्चय ही त्रिलोकी ऐसी कोई बात नहीं है; जो इस ब्राह्मणो.

को विदित न हो । नारदने इनके विपे जितना कहा है,

उससे भी ये बहुत यदकर हैं।? इस प्रकार उन विपी

प्रशंसा करके हर्पमें मेरे हुए सूर्यदेयने कटा-- श्ये ब्राह्मणो !

मैं सूर्य हूँ, आपका दर्शन करनेके लिये सूर्यल्योकसे यहाँ

आया हूँ । आज मेरे नेत्र सफल हो गये । आप-जैसे

उत्तम आक्षणोंके साथ वार्ताछाप करने और वैंठनेसे चाण्डाल

भी पवित्र होते हैं । देवाषि नारद भी सर्वथा धन्य हैं, जो

विछोकीके तत्को आनते ६ । जिनश्न शेय आपके द्वारा

उसी प्रकार बढ़ रहा है, जैसे दैधृति योगमें किये हृष्ट दान

का पुण्य बढ़ता दै} मैं अपने मन और बुद्धिकों एकाग्र

करके आप सथ लोगोंकों प्रणाम करता हूँ; क्योंकि तपः

विद्या और सदाचार ही बढ़प्पनका प्रधान ऋरण टै ।

देवताओंका संसर्ग निष्ण नहीं होता, इसलिये मुझते कोई

वर माँगिवे; मैं उते आफ्लोगोंकों दूँगा ।?

भगवान्‌ यूर्यकी यह बात सुनकर वे श्रेष्ठ ह्मण बहुत

प्रसन्न हुए । उन्दने पाच, अर्य, स्तुति और चन्दनमे

अत्यन्त भच्छपूरव ए सूर्यदेवका पूजन किया और मण्डल-

बराह्मण आदि जपनीय मन्त्रोंका उद्यारण करने हुए उनकी

इस प्रकार स्नुति की---*आदित्य ! आपकी जय हो । स्वामिन्‌ !

आपकी जय हो । भानो! आर्की जय हो । निर्म प्रकाश-

स्वरूप ! आपकी जय हो । वेदोके पटक ! दियानाथ !

सूर्यदेव ! आपकी जप हो | आप हमारा उद्धार करें।

ब्राक्मणोके रुदते प्रधान देवता आप ही हैं । ब्राक्षण-स॒प्रि

सर्यमयी ही द । आपकी कृपाण पड़नेसे हमारा यह स्थान

अत्यन्त प्रविनत्न हों गया | आज इमोरे वेदाध्ययन सफल हो

गये । आज इसमें अपने समस्त पुण्यक्ममोंक्रा फल मिल गया।

गोपते ! आपका सङ्ग कर आज मारा यह द सफल हों

गया । यदि आप हमें बर देना चादते हैं; तो हम यही माँगते

हैं कि आप हमारे ६१ स्थानफा कमी परित्याग न करें |?

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