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आच्छरकाण्ड ]

० जीतिसार-विरूपए +

१६५

(4 । 4 ~ 4...

कृपण अपने द्वारा संचित धन यज्ञॉसें नहीं लगा पाता

है और अपने द्वारा मौगकर इकट्ठा किये धनको गुणवारनोको

भी नहीं देता है । इस प्रकारका कृपणके द्वारा सुरक्षित धन

चोर और राजाके काममें हौ आता है । कृपणका धन देवता,

ब्राह्मण, बन्धु तथा आत्महितके लिये नहं होता, वह तो

अग्नि, चोर अधवा राजाके लिये होता है। अत्यन्त कष्टसे

अर्जित किया गया धन, धर्मका अतिक्रमण करके अर्जित

किया गया धन अथवा शत्रुको साष्टाङ्ग प्रणाम करके और

उसकी अधीनता स्वीकार करके प्राप्त किया गया धन-

प प्रकारका धन तुझे कभी प्राप्त त हो।

विद्याका अध्यास न करनेसे वह विनष्ट हो जाती है।

शक्ति रहते हुए फटे-पुराने, मैले-कुचैले वस्त्रोंको धारण

करनेवाली स्त्रियाँ सौभाग्यकी रक्षा नहीं कर पाती, सुपाच्य

भोजनसे रोग नष्ट हो जाता है और चातुर्यपूर्ण नीतिसे शत्रुका

विनाश हो जाता है।

चोरका वध हौ उसका दण्ड है। दुष्ट मित्रके लिये

समुचित दण्ड उसके साथ अल्प वार्तालाप करता है।

स्त्रियोंका दण्ड उनसे पृथक्‌ शय्यापर शयन करना तथा

ब्राह्मणके लिये दण्ड तिमन्त्रण न देना है।

दुर्जन, शिल्पकार, दास तथा दुष्ट एवं ढोलक आदि

वाद्य और स्त्री आदि सम्यक्‌ अनुशासनसे ही मृदु-

स्वभावको प्राप्त करते हैं। ये सत्कारमात्रसे मृदु स्वभाववाले

नहीं हो पाते।

कार्यमें संलग़ करनेसे धृत्य, दुःख होनेपर बन्धु-

बान्धव, विपत्तिकालमें मित्र तथा ऐश्वर्यके नष्ट होतेपर स्वीके

स्वभावकी परीक्षा करनी चाहिये ~

जानीयात्प्रेषणे भृत्यान्‌ बरान्थवात्‌ व्यसनागमे ।

पित्रमापदिं काले च भार्यां च विभवक्षये ॥

(१०९।३२)

पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रयोका आहार दुगुना, युद्धि चौगुनी,

कार्यकी क्षमता छःगुनी ओौर कामवासना आठंगुनी अधिक

मानी गयौ है। स्वप्रसे निद्राको नहीं जीता जा सकता,

क्य्मवासतासे स्त्रीपर विजय नहीं प्राप्त की जा सकती,

ईंधनसे अग्रिको तृप्त नहीं किया जा सकता तथा पद्यसे

प्यास नहीं बुक्नायी जा सकती। मांसयुक्त किग्ध भोजन,

नाना प्रकारकी मदिराओंका पान, सुगन्थित द्रव पदार्थोंका

विलेपन, सुन्दर वस्त्र और सुवासित माल्याभरण-ये

स्व्ियॉकी कामवासनाकी अभिवृद्धि करते हैं। जैसे लकड़ियोकि

अधिक-से-अधिक ढेरको प्राप्त करके भी अग्रि संतुष्ट

नहीं होती; तदीसपूहके मिलनेषर भी समुद्र तृष्णारहित

होकर संतृप्त नहीं होता; यमराज सभी प्राणियॉका संहार

करके भौ आत्मसंतुषटि प्राप्त करनेये असमर्थ हैं; ऐसे हो

नारी असंख्य पुरुषोंके साथ सम्पर्क करके भी संतृप्त नहीं

होती।

शिष्ट व्यक्ति (सुशील), अभीष्ट-सिद्धि, प्रियवचन,

सुख, पुत्र, जीवन और देवगुरुसे प्राप्त आशीर्वचनसे

मनुष्यकी इच्छाएँ परिपूर्ण नहीं होती, इनके लिये अभिलाषा

बढ़ती ही रहती है। धनके संग्रहसे राजा, नदिर्वोकी

जलराशिसे समुद्र, सम्भाषणसे धिट्ठान्‌ एवं राजदर्शनसे

प्रजाके नेत्र संतुष्ट नहीं हो पाते।

अपने विहित कर्म तथा धर्माचरणका पालन करते हुए

जीविकोपार्जनमें तत्पर, सदैव शास्त्र-चिन्तनमें रत तथा

अपनी स्थ्रीमें अनुरक्त, जितेन्द्रिय और अतिथिसेयामें निरत

श्रेष्ठ पुरुषोंकों तो घरमे भी मोक्ष प्राप्त हो जाता है'।

जिस सत्कर्मनिरत पुरुषके पास मनोऽनुकूल, सुन्दर

वस्त्राभूषणसे अलंकृत स्त्री है, यदि वह व्यक्ति उसके साथ

अपने भवनकी अटारीपर सुखपूर्वक निवास करता है तो

उसके लिये यहींपर स्वर्का सुख है।

जो स्थ्रियाँ स्वभायसे ही धर्म-विरुद्ध आचरण करनेवाली

एवं पतिके प्रतिकूल व्यवहार रखनेवाली हैं, वे स्त्रियाँ न

धन आदिके दान, न सम्मान, न सरल व्यवहार, न

सेवाभाव, न शस्त्र-भय और न शास्त्रोपदेशसे हो अनुकूल

की जा सकती हैं, वे तो सदा प्रतिकूल ही रहती हैं।

विद्यार्जन, अर्थ-संग्रह, पर्वतारोहण, अभीष्ट-सिद्धि तथा

धर्मांचण- इन पाँचोंको धीरे-धीरे प्राप्त करता चाहिये।

देवपूजनादिक कर्म, ब्राह्मणको दान, गुणवती विद्याका

संग्रहण तथा सन्मित्र-ये सदा सहायक होते हैं। जिन्होंने

आल्यकालसे विद्यार्जन नहीं किया है, जिनके द्वारा युवावस्थामें

३ - स्वकर्मधर्माआताजीविताा

शास्त्रैपु दारेषु सदा रठानामू।

जितेद्ियाणामातिथिप्रियाणां गुहैऽपि मोक्ष: पुरुषोत्तमानाम्‌ # ( १५९।४३)

२-१ दामेव भ भाजेत नार्जवेन 3 सेव्या।त शस्यैण ने शास्त्रैण सर्वधा विषया; स्लिय;॥ (१०९। ४५)

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