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संक्षिप्त नारदपुराण

त्रिविध तापोंसे छूटनेका उपाय, भगवान्‌ तथा वासुदेव आदि शब्दोंकी व्याख्या,

परा और अपरा विद्याका निरूपण, खाण्डिक्य और केशिध्वजकी कथा,

केशिध्वजद्रारा अविद्याके बीजका प्रतिपादन

सूतजी कहते हैं--महर्षियो ! उत्तम अध्यात्मज्ञान

सुनकर उदारबुद्धि नारदजौ बड़े प्रसन्न हुए।

उन्होने पुनः प्रश्न किया।

नारदजी बोले--दयानिधे ! मैं आपकी शरणमें

हूँ। मुने! मनुष्यको आध्यात्मिक आदि तीनों

तापोंका अनुभव न हो, वह उपाय मुझे बतलाइये।

सनन्दनजीने कहा--विद्न्‌! गर्भमें, जन्मकालमें

और बुढ़ापा आदि अवस्थाओंमें प्रकट होनेवाले

जो तीन प्रकारके दुःख-समुदाय हैं, उनकी एकमात्र

अमोघ एवं अनिवार्यं ओषधि भगवान्‌की प्राप्ति ही

मानी गयी है। जब भगवत्प्राप्ति होती है, उस

समय ऐसे लोकोत्तर आनन्दकी अभिव्यक्ति होती

है, जिससे बदृकर सुख और आह्वाद कहीं है ही

नहीं। यही उस भगवत्प्राप्तकी पहचान है। अतः

विद्वान्‌ मनुष्योंको भगवान्‌कौ प्राप्तिकि लिये अवश्य

प्रयत्न करता चाहिये। महामुने! भगवत्प्राप्तिकि दो

ही उपाय बताये गये हैं-ज्ञान और (निष्काम)

कर्म | ज्ञान भी दो प्रकारका कहा जाता है। एक

तो शास्त्रके अध्ययन और अनुशीलनसे प्राप्त होता

है और दूसरा विवेकसे प्रकट होता है। शब्दब्रह्म

अर्थात्‌ वेदका ज्ञान शास्त्रज्ञान है और परब्रह्म

परमात्माका बोध विवेकजन्य ज्ञान है। मुनिश्रेष्ठ!

मनुजीने भी बेदार्थका स्मरण करके इस विषयमे

जो कुछ कहा है, उसे मैं स्पष्ट बताता हूँ--सुनों।

जानने योग्य ब्रह्म दो प्रकारका है--एक शब्दब्रह्म

और दूसरा परब्रह्म। जो शब्दब्रह्म (शास्त्रज्ञान)-में

पारङ्गत हो जाता है, वह विवेकजन्य ज्ञानद्वारा

परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है'। अथर्ववेदकी श्रुति

कहती है कि दो प्रकारकी विद्याएँ जानने योग्य

हैं-परा और अपरा। परासे निर्मुण-सगुणरूप

परमात्माकी प्राप्ति होती है। जो अव्यक्त, अजर,

चेष्टारहित, अजन्मा, अविनाशी, अनिर्देश्य (नाम

आदिसे रहित), रूपहीन, हाथ-पैर आदि अड्रोंसे

शून्य, व्यापक, सर्वगत, नित्य, भूतोंका आदिकारण

तथा स्वयं कारणहीन है, जिससे सम्पूर्ण व्याप्य

वस्तुं व्याप्त हैं, समस्त जगत्‌ जिससे प्रकट हुआ

है एवं ज्ञानीजन ज्ञानदृष्टिसे जिसका साक्षात्कार

करते हैं, वही परमधामस्वरूप ब्रह्म दै । मोक्षको

इच्छा रखनेवाले पुरुषोंकों उसीका ध्यान करना

चाहिये । वही वेदवाक्योंद्वारा प्रतिपादित, अतिसूक्ष्म

भगवान्‌ विष्णुका परम पद है। परमात्माका वह

स्वरूप ही 'भगवत्‌' शब्दका वाच्यार्थं है ओर

"भगवत्‌" शब्द्‌ उस अविनाशी परमात्माका वाचक

कहा गया है । इस प्रकार जिसका स्वरूपं बतलाया

गया है, वही परमात्माका यथार्थ तत्त्व है । जिससे

उसका ठीक-ठीक बोध होता है, वही परा विद्या

अथवा परम ज्ञान है। इससे भिन्न जो तीनों वेद हैं

उन्हें अपर ज्ञान या अपरा विद्या कहा गया है।

ब्रह्मन्‌! यद्यपि वह ब्रह्म किसी शब्द या

वाणीका विषय नहीं है, तथापि उपासनाके लिये

*भगवान्‌' इस नामसे उसका कथन किया जाता

है। देवर्षे! जो समस्त कारणोंका भी कारण है,

उस परम शुद्ध महाभूति नामवाले परब्रह्मके लिये

ही भगवत्‌ शब्दका प्रयोग हुआ है। ' भगवत्‌

१, दव ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत्‌ । शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ( ना० पूर्व० ४६॥ ८)

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