जाहापर्य ]
» सौर-अर्ममे शान्तिक कर्म एवं अभिचेक-विषि «
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दूर करनेवाले जगन्नाथ भगवान् भास्करक् पूजा एवे हवन करो ।
गरुडजीने कहा - मै विकलाङ्ग होनेसे भगवान् सूर्यकी
पूजा एवं अग्निकार्य करनेमें असमर्थ हूँ। इसलिये मेरी दचन्तिके
लिये अग्रिका कार्य आप सम्पादित करें।
अरुणजी बोले--विनतानन्दन ¦ महाव्याधिसे प्रपीडित
होनेके कारण तुम इसके सम्पादनमें समर्थ नहीं हो, अतः मैं
तुम्हारे रोगकी शान्तिके लिये पावकरार्चन (अग्निहोम) करूँगा।
यह लक्ष-होम सभी पापों, विश्नों तथा व्याधियोंका नादाक,
महापुण्यजनक, वान्ति प्रदान करनेबात्म्र, अपमृत्यु-निवारक,
महान् शुभकारी तथा विजय प्रदान करने है। यह सभी
देवॉको तृप्ति अदान करनेवाला तथा भगवान् सूर्यको अत्यन्त
प्रिय है।
इस पावकार्चनमें सूर्य-मन्दिस्के अग्रिकोणमें गोमयसे
भूमिको लीपकर अप्रिकी स्थापना करें और सर्वप्रधम
दिक््पाल्ल्ेंकी आहूति प्रदान करे ।
खगश्नेष्ठ ! इस प्रकार विधिपूर्वक आहुतियाँ प्रदान
करनेके अनन्तर “ॐ भूर्भुवः स्वाहा' इसके द्वारा लक्ष हवनका
सम्पादन करें। सौर-महाहोममें यही विधि कही गयी है।
भागवान् भास्करके उद्देशयसे इस अभ्रिकार्यको करे । यह सभी
ल्त्रेकोंकी सभौ प्रकारक शान्तिके लिये उपयोगी है।
हवनके अनन्तर झान्तिके लिये निर्दिष्ट मनत्रोंका पाठ
करते हुए अभिषेक करना चाहिये। सर्वप्रथम ग्रहोंके अधिपति
भगवान् सूर्य तथा सोमादि अहोंसे शान्तिक प्रार्थना करे? ।
रक्त कमलके समान नेत्रोयाले, सहस्नकिरणोंवाले, सात
१+ आरक्तदेहरूपाय. रततक्षाय महात्मने । घराघतय झात्ताय सहल्लाक्षषिराय च ॥
"अधोमुख श्वेताय स्वाहा'--इससे प्रथम आहुति दे।
आन्ताय. फ्यासनाताय च ॥ पदयसर्णायः ग्रेघाय कऋमण्डसुघताय च ।
चतुर्मुस्यय
'ऊर्ध्यमुस्छाय स्वाहा --इससे द्वितीय आहुति दे ।
हेमवर्णीय देहयय वाजाय
देवाधिपाय चेनद्राय विहस्ताय शुधाव च ।
*पूर्वकदनाथ स्वाहा --ईसने तृत्तैय आहूति दे ।
दीपाय व्यक्तदेहाय ज्याल्ममाल्यकुलछाय च । इन्रैत्रभदेहाय
यमाय र्मराकाय दक्षिणामुखाय च ।
*कृष्णाम्बरधराय स्काहा' -- इससे चौथी आहुति दे ।
नीलजीमूतर्णाीय रक्ताम्करधयय च । मु्त्कलदायीराय
युक्रयस्राय पीताय दिष्यप्टशधऱव च ।
-पठरभिमुखाय स्वाहा --इससे पौदवौ आहूति दे
*उत्ततभिमुल्लाय महादेवष्रिदाव स्वाहा --इससे सातवीं आहुति दे ।
च । सहस्नाक्षशणैरय
च । नोलष्यजाय वीराय तथा चेनद्राय चेषते ॥
शरेताय श्ेतवर्णाय चित्राक्षाय महात्मने | रर्तप्य शान्तरूपाय पिन्करकयरधारिषे ४
ईदकनभिमुलायेदक्य स्वाहा'--इससे आठवीं आहूति दे ॥
(जह्यपर्व १७५। १८--३२)
[ यह दषा दिक्पाल-होम प्रतीत होता है, कितु पाठकों गड़बड़ीसे आप्रेय तथा नैऋत्यकोजक् आहुतयो स्वरूप अस्यष्ट है }
र-ज्ाष्यर्थ सर्वस्पेकानओं ततः शाशिकमाचरेत्। सिन्टूरासतरक्ताभः रक्तपचाभलोचत: ॥
पुष्परागनिभेनेह देहेन परिपिकुल: । पीतमाल्याम्बरघरो बुधः पीड व्यपोहतु ॥