२८ ग्वेद संहिता धाग-१
सोमरस को परिष्कृत करने वाले ज्ञानी यजमान के द्वारा आनन्द प्रदान करने के लिए दिये गये अन्न (आहार)
को इन्द्रदेव ग्रहण करें, वे इन्द्रदेव तथा ज्ञानी यजमान उत्तम स्थान प्राप्त करें ॥१ ॥
२१९५. अस्य मन्दानो मध्वो यज्रहस्तोऽहिमिन्रो अर्णोवृतं वि वृश्चत् ।
प्र यद्भयो न स्वसराण्यच्छा प्रयांसि च नदीनां चक्रमन्त ॥२ ॥
जिस प्रकार पक्षी अपने घोंसलों में जाते हैं, उसी प्रकार नदियों की धाराये प्रवाहित होती हैं ।ऐसे प्रवाहित
सोमपान से आनन्दित इन्द्रदेव ने हाथ में वज्र धारण करके जल को रोकने वाले अहि नामक राक्षस को मारा था ॥२ ॥
२१९६. स माहिन इन्द्रो अर्णो अपां प्रैरयदहिहाच्छा समुद्रम् ।
अजनयत्सू्वं विदद्गा अक्तुनाद्लां वयुनानि साथत् ॥३ ॥
अहि नामक राक्षस को मारने वाले इन्द्रदेव ने अन्तरिक्च के जल को सीधे समुद्र कौ ओर प्रवाहित किया,
उन्ही न तथा सूर्यश्मियों को प्रकट किया, जिसके प्रकाश से दिन में होने वाले सभो कार्यों को हम
करते हैं ॥३ ॥
२१९७. सो अप्रतीनि मनवे पुरूणीन्द्रो दाशद्ाशुषे हन्त वृत्रम्।
सद्यो यो नृभ्यो अतसाय्यो भूत्पस्पृधानेभ्यः सूर्यस्य सातौ ॥४॥
जो इन्द्रदेव सूर्य के समान तेजस्वी स्वरूप प्राप्त करने के लिए सब दिन समान रूप से स्पर्धा करते हैं, वे
इनद्रदेव दानशील मनुष्यों के लिए श्रेष्ठ धने के प्रदाता हैं । वे हो वृत्र राक्षस को मारते हँ ॥४ ॥
२१९८. स सुन्वत इन्द्रः सूर्यमा देवो रिणडप्र्त्याय स्तवान्।
आ यद्रयिं गुहदकद्यमस्मै परदंशं नैतशो दशस्यन् ॥५॥
जिस प्रकार पुत्र को पिता अपने धन का एक अंश देता है, उसी प्रकार जब इद्धदेय को दान दाता एतश' ने
यज्ञ के समय अमूल्य तथा उत्तम धन प्रदान किया, तब पूज्य तथा तेजस्वी इन्द्रदेव ने यज्ञ की कामना वाले मनुष्यों
के लिए सूर्य को प्रकाशित किया ॥५ ॥
२१९९. सर रन्धयत्सदिवाः सारथये शुष्णमशुषं कुयवं कुत्साय ।
दिवोदासाय नवतिं च नवेद्ध: पुरो व्यैरच्छम्बरस्य ॥६ ॥
उन तेजस्वी इ्रदेव ने सारधि कुत्स (कुत्साओ से समाज की रक्षा करने वालों) के निमित्त शुष्ण (शोषक)
अशुष (निष्ठुर) कुयव (कुधान्य) नामक आसुरो का संहार किया तथा दिवोदास के निमित्त शम्बरासुर (अशान्ति
पैदा करने वालो) के निन्यानवे नगरों को ध्वस्त किया ॥६ ॥
२२००. एवा त इन्द्रोचथमहेम श्रवस्या न त्मना वाजयन्तः ।
अश्याम तत्साप्तमाशुषाणा ननमो वधरदेवस्य पीयोः ॥७ ॥
है इनदरदेव ! हम अत्र और बल कौ कामना से आपकी स्तुतियां करते है । आपने देवों की अवपरानना
करने वाले तथा हिंसक दुष्टो के हिंसाकारी कृत्यो को नष्ट किया । हमर आपसे परम मैत्री भाव बनाये रखें ॥७ ॥
२२०१. एवा ते गृत्समदाः शूर पन्मावस्यवो न वयुनानि तक्षुः ।
ब्रह्मण्यन्त इन्दर ते नवीय इषमूर्जं सुक्षितिं सुम्नमश्युः ॥८ ॥
हे शूरवीर इन्द्रदेव गृत्समदगण अपने उत्तम संरक्षण कौ कामना से आपकी उत्तम एवं मनोरम स्तोतरो के