म॑ २ सू० १९ २७
इन्द्रदेव के सुखपूर्वक आवागमन के लिए उत्तम स्तुतियों के माध्यम से उनके रथ में दोनों घोड़ो को
नि किया गया है । हे इद्धदेव ! हमारे अतिरिक्त अन्य कोई भी मेधावी स्तोता आपको भली- भाति तृप्त
कर सकता ॥३ ॥ |
२१८८. आ द्वाभ्यां हरिभ्यामिद्ध याह्या चतुर्भिरा षड्भिर्टूयमानः।
आष्टाभिर्दशभिः सोमपेयमयं सुतः सुमख मा मृधस्कः ॥४॥
है इनदरदेव ! हमारे दवारा आवाहित आप सोप-पान करने के लिए दो, चार, छ, आठ, दस घोड़ों से आये ।
यह सोम रस आपके लिए शोधित किया गया है। आप इसका पान करें, इसके लिए युद्ध न करें ॥४ ॥
२१८९. आ विंशत्या त्रिंशता याह्वार्वाइम चत्वारिंशता हरिभिर्युजानः ।
आ पञ्चाशता सुरथेभिरिनदरा ष्टा सप्तत्या सोमपेयम् ॥५ ॥
हे इद्धदेव आप सोमरस का पान करने के लिए रथ के योग्य बोस, तीस, चालोस, पचास, साठ तथा सत्तर
घोड़ों को नियोजित करके हमारे पास आयें ॥५ ॥ `~ -
२१९०. आशीत्या नवत्या याहार्वाङा शतेन हरिभिरुद्ममान: ।
अयं हि ते शुनहोत्रेषु सोम इन्द्र त्वाया परिषिक्तो मदाय ॥६ ॥
हे इद्धदेव ! आपको आनन्दित करने के लिए सोषरस को सुन्दर पात्रों में रखा गया है, अतः आप अस्सी,
नन्वे और सौ घोड़ों को अपने रथ मे नियोजित करके हमारे पास आयें ॥६ ॥
२१९१. षम ब्रहोन्द्र याह्माच्छा विश्वा हरी धुरि धिष्वा रथस्य ।
. पुरुआ हि विहव्यो बभृथास्मञ्छूर सवने मादयस्व ॥७ ॥
हे इन्द्रदेव ! आप बहर्तो के द्वारा आमचित किये गये हैं, अत: हमारे स्तोत्रों को स्वीकार करके अपने रथ में
सभी घोड़ों को नियोजित करके हमारे इस यज्ञ में आकर आनन्दित हों ॥७ ॥
[“वी्वं वा अः" के अनुसार अश पराक्रम का पर्याय है। प्रार्थना की गयी है कि सोमपान से इन्र अपना पराक्रप सतत
बढ़ाते हुए हपारे पास आयें । यह ऋचा अंक विद्या से भी जोड़ी जाती है । ]
२१९२. न म इन्द्रेण सख्यं वि योषदस्मभ्यमस्य दक्षिणा दुहीत ।
उप ज्येष्ठे वरूथे गभस्तौ प्रायेप्राये जिगीवांसः स्याम ॥८ ॥
इन्द्रदेव के साथ हमारी मैत्री अटूट रहे । हम उनके उत्तम दाहिने हाथ के समोप रहं । इन्द्रदेव के द्वारा हमें
सदैव दान मिलता रहे । इनके संम हम प्रत्येक युद्ध मे विजय प्राप्त करें ॥८ ॥
२१९३. नूनं सा ते प्रति वरं जरित्रे दुहीयदिन्द्र दक्षिणा मघोनी ।
शिक्षा स्तोतृभ्यो माति धग्भगो नो बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥९ ॥
व पा राज पद कि
अत्तः साथ
पराक्रम प्रदान करे वालेस्तोबं
[ सूक्त - १९ ]
[ऋषि- गृत्समद (आद्विरस शौनहोत्र पद् ) भार्गव शौनक । देवता- इन्द्र । छन्द - तिष्ठप्।]
२१९४ अपाय्यस्थान्थसो मदाय मनीषिणः सुवानस्य प्रयसः ।
यस्मिन्निनद्रः प्रदिवि वावृधान ओको दधे ब्रह्मण्यन्तश्च नरः ॥९ ॥