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एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय
वर्ण और आश्रमके सामान्य धर्म, वर्णो तथा विलोमज जातियोंके विशेष धर्म
. अग्निदेव कहते हैं--मनु आदि राजर्षि जिन
धर्मोंका अनुष्ठान करके भोग और मोक्ष. प्राप्त कर
चुके हैं, उनका वरुण देवताने पुष्करको उपदेश
किया था और पुष्करने श्रीपस्शुस्सजीसे उनका
वर्णन किया था॥१॥ ।
पुष्करने कहा - परशुरामजी ! मैं वर्ण, आश्रम
तथा इनसे भिन्न धर्मोका आपसे वर्णन करूँगा। वे
धर्म सव कामनाओंकों देनेवाले हैं। मनु आदि
धर्मात्मोओंनें भी उनको उपदेश किया है तंथा वे
भगवान् वासुदेव आदिको संतोष प्रदानं करनेवाले
है । भृगुश्रेष्ठ)! अहिंसा, सत्य-धाषण, दया, सम्पूर्ण
प्राणियॉपर अनुग्रह, तीर्थोका अनुसरण, दान्,
ब्रह्मचर्य, मत्सरताका अभाव, देवता, गुरु और
ब्राह्मणोंकी सेवा, सब धर्मोंका श्रवण, पितरॉका
पूजन, मनुष्योंके स्वामी श्रीभगवानमें सदा भक्ति
रखना, उत्तम शास्त्रोंका अवलोकन करना, क्रूरताका
अभाव, सहनशीलता तथा आस्तिकता (ईश्वर
और परलोकपर विश्वास रखना)--ये वर्ण और
आश्रम दोनोंके लिये ' सामान्य धर्म' बताये गये
हैं। जो इसके विपरीत है, वही “अधर्मः है। यज्ञ
करना और कराना, दान. देना, . वेद. पढ़ानेका
कार्य करना, उत्तम प्रतिग्रह लेना तथा स्वाध्याय
करना-ये ब्राह्मणके कर्म हैं। दान देना, वेदाँका
अध्ययन करना और विधिपूर्वकं यज्ञानुष्ठान
करना-ये क्षत्रिय और वैश्यके सामान्य कर्म हैं।
प्रजाका पालन करना और दुष्टोंको दण्ड देना-
ये क्षत्रियके "विशेष धर्म हैं। खेती, गोरक्षा और
व्यापारं-ये वैश्यके विशेष कर्म बताये गये हैं।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य--इन द्विजोंकी सेवा
तथा सब प्रकारकी शिल्प-रचना-ये शुद्रके
कर्म हैं॥ २--९॥
पौज्जी- बन्धन (यज्ञोपवीत-संस्कार) होनेसे
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-बालकका द्वितीय
जन्म होता है; इसलिये वे 'द्विज' कहलाते हैं।
यदि अनुलोम-क्रमसे वर्णोकों उत्पत्ति हो तो
माताके समान बालककौ जाति मानी गयी है॥ १० ॥
बिलोम-क्रमसे अर्थात् शुद्रके वीर्यसे उत्पन्न
हुआ ब्राह्मणीका पुत्र 'चाण्डाल' कहलाता है,
क्षत्रियके वीर्यसे उत्पन्न होनेवालो ब्राह्मणीका पुत्र
“सूत” कहा गया है और वैश्यके वीर्यसे उत्पन्न
होनेपर उसकी “वैदेहक' संज्ञा होती है। क्षत्रिय
जातिकी स्त्रीके पेटसे शुद्रके द्वारा उत्पन्न हुआ
विलोमज पुत्र "पुकस ' कहलाता है। वैश्य और
शूद्रके वीर्यसे उत्पन्न होनेपर क्षत्रियाके पुत्रकी
क्रमश: “मागध” और 'अयोगब” संज्ञा होती
है। वैश्य जातिकी स्त्रीके गर्भसे शुद्र एवं विलोमज
जातियोंद्वारा उत्पन्न विलोमज संतानोंके हजारों
भेद हैं। इन सबका परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध
समान जातिवालोंके साथ ही होना चाहिये;
अपनेसे ऊँची और नीची जातिके लोगोंके साथ
नहीं ॥ ११--१३॥
धके. योग्य ` प्राणिर्योका वध करना-यह
चाण्डालका कर्म बताया गया है। स्त्रियोंके
उपयोगमें आनेवाली वस्तुओंके निर्माणसे जीविका
चलाना तथा स्त्रियोंकी रक्षा करना-- यह ' वैदेहकः
का कार्य है । सूतोंका कार्य है--घोड़ॉंका सारथिपना,
*पुक्कस ' व्याध-वृत्तिसे रहते हैं तथा 'मागध' का
कार्य है- स्तुति करना, प्रशंसाके गीत गाना।
"अयोगव "का कर्म है-रम्जभूमिमें उतरना और
शिल्पके द्वारा जीविका चलाना। 'चाण्डाल 'कों
गाँवके बाहर रहना और मुर्देसे उतारे हुए वस्त्रको
धारण करना चाहिये। चाण्डालकों दूसरे वर्णके
लोगोंका स्पर्श नहीं करना चाहिये। ब्राह्मणों तथा
गौओंकी रक्षाके लिये प्राण त्यागना अथवा स्त्रियों