३२६९ ] [ मंत्स्य पुराणं
चरुञ्च पुत्रसहिता प्रणस्य रचिशंकरौ ।३३ `
हतशेष तदाश्नीयादादित्याय नमोऽस्त्विति ।
इृदमेबादभुतोद गदुःस्वप्नेषु प्रणस्यते ।३४
कतु जन्मदिनक्षंच त्यक्त्वा संपूजयेत् सदा ।
णान्त्यथे शुक्लसप्तम्यामेतत्कृवंन्न सोदति ।३५
इसके अनन्तर शुक्ल वस्त्र धारण करनी वाला कुमार और षपति
से सभग्वित भक्ति मे स्त्रियो के सप्तक का पूजन करे पुनः इसके बाद
गुरु का यजन करे । २६) इसके उपरान्त ताम्रपात्र के ऊपर स्थित धर्म-
राज की सुवर्ण की प्रतिमा को करे और फिर उस गुरुजी के लिये
निवेदित कर देना चाहिये ।३०। चिन्न की शठता से रहित होकर
अर्थात् धन होते हुए कृपणता न करके उसी भाँति ब्राह्मणों का वस्व
सुवर्ण. रत्नों क। समूह, भद्यय, घृत और पायस से पूजन करना चाहिए।
॥३१। भोजन करके गुरु को यह मन्त्रों की सन्तति का उच्चारण करना
चाहिए-यह बालक दीर्घायु हो और सौ बर्ष तक सुखी रहे ।३२। जो
क.छ भी इसका दुरित (पाप) हो उसको बड़वानल में क्षिप्त कर दिया
जावे । ब्रह्मा, रुद्र, वसु, स्कन्द, विष्णु, शक्र, हुताशन ये सब दुष्टों से
रक्षा करें और सर्वदा वरदान देने वाले होबें---इस प्रकार के वाक्यों
को बोलने वाले गुरु का अभ्यर्चन करे ।३३। अपनी शक्ति के अनुसार
एक कपिला गौ का दान करे फिर प्रणाम करके गुरुका विसर्जन कर
देना चाहिए । पुत्र से सहित रंबि और भगवान् शंकरको प्रणाम करके
उस चरु को जो दत से शेष बचकर रह गया है उसको---“'अदित्याय
नमो>स्तु'---इस मन्त्र के साथ उसी समय में प्राणन कर लेवे | यह ही
अद्भुतोद़ गदु: स्वप्नों में प्रणस्त माना जाता है ।३४। कर्ता का जन्म.
दिन और नक्षत्र का त्याग करके सदा ही पूजन करे । मास के शुक्ल
पक्ष की सप्तमी में शान्तिके लिये करता हुआ मानव कभी दुःखित नहीं
दोता है ।३५।