पै० २ सू० २० २९
द्वारा स्तुतियाँ करते है ; उसी प्रकार नये ब्रह्मज्ञानी स्तोताजन भी उत्तम आश्रय, अन्न, बल और सुख की प्राप्ति के
लिए स्तुतियाँ करते हैं ॥८ ॥
२२०२. नून॑ सा ते प्रति वरं जरित्रे दुहीयदिद्ध दक्षिणा मघोनी ।
शिक्षा स्तोतृभ्यो माति धग्भगो नो बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥९ ॥
हे इन्द्रदेव | यज्ञ काल में आपके द्वारा दी गयी ऐश्वर्य युक्त दक्षिणा निश्चय ही स्तोताओं को धन प्राप्त कराती
है, अतः हमें भी स्तोताओं साथ वह रेव बुकत दिना दे जिसले हम यज्ञ में महान् पताकम दान करने काले
स्तुतियाँ करें ॥९ ॥
[सक्त - २० ]
[ऋषि- गृत्समद (आङ्गिरस शौनहोत्र पश्चाद्) भार्गव शौनक । देवता- इन्द्र । छन्द - त्रिष्वुप् ॥]
२२०३. बयं ते वय इन्द्र विद्धि षु णः प्र भरामहे वाजयुर्न रथम् ।
विपन्यवो दीध्यतो मनीषा सुम्नमियक्षन्तस्त्वावतो नृन् ॥१ ॥
हे इन्द्रदेव ! जिस प्रकार अन्न की कामना वाले अपने रथ को अत्र से भरते हैं, उसी प्रकार हम स्तोताजन
बुद्धि से तेजस्वी होते हुए आपसे सुख की कामना करते हुए आपके लिए हवि प्रदान करते है । हमारे इस
कार्य को आप भली-भाँति जानें ॥१ ॥
२२०४५. त्वं न इन्द्र त्वाभिरूती त्वायतो अभिष्टिपासि जनान्।
त्वभिनो दाशुषो वरूतेत्थाथीरभि यो नक्षति त्वा ॥२ ॥
द | को आपनो है सक है स सोल म के समीप आने पर आप हर प्रकार
से उसकी रक्षा करते हैं। आप विपत्तियों से बचाने वाले तथा न्यायशील हैं, अत: आप अपने रक्षण
साधनों से हमें संरक्षण प्रदान करें ॥२ ॥
२२०५. स नो युवेद्धो ओहूत्रः सखा शिवो नरामस्तु पाता।
य: शंसन्तं यः शशमानमूती पचन्तं च स्तुवन्तं च प्रणेषत् ॥३ ॥
स्तोत्रों का उच्चारण करने वाले, उत्तम निर्देश देने वाले, हविष्यात्र को तैयार करने वाते तथा स्तोता यजमानों
को, जो अपने संरक्षण के द्वारा विपत्तियों से मुक्ति दिलाते हैं, ऐसे नित्य तरुण, मित्रवत् सदैव पास बुलाने योग्य
तथा सुखस्वरूप इनदरदेव समस्त प्रजा सहित हमें संरक्षण प्रदान करें ॥३ ॥
२२०६. तमु स्तुष इन्द्रं तं गृणीषे यस्मिन्पुरा वावृधु: शाशदुश्न ।
स वस्वः कामं पीपरदियानो ब्रह्मण्यतो नूतनस्यायोः ॥४ ॥
जिन इद्धदेव के आश्रय में स्तोतागण वृद्धि पाते रहे हैं और शत्रुओं का संहार करते रहे हैं, उन इन्द्रदेव का
वशोगान हम स्तुतियों से करते हैं । वे स्तुत्य इन्द्रदेव नये यजमानो की घन की कामना को पूर्ण करते हैं ॥४ ॥
२२०७. सो अट्विरसामुचथा जुजुष्वान्बरह्मा तूतोदिनद्रो गातुमिष्छान्।
सूर्येण स्तवानश्नस्य चिच्छिश्नथत्पूर्व्याणि ॥५ ॥
को स्वीकारते हुए वे इनदरदेव श्रेष्ठ मार्गदर्शक के रूप में उनके ज्ञान में वृद्धि करते
हैं। सुस्व सूर्य को उदित उषा को हते हुए 'अश्नासुर' (बहुत खाने वाले असुर अन्धकार या
आलस्य) को नष्ट हैं ॥५ ॥