ही विद्वान् पुरुषोंकों उसका “जॉतकर्म-संस्कारें!
करना चाहिये। सूतक निवृत्त होनेपर 'नामकरण-
संस्कार” का विधान है। ब्राह्मणके नामके अन्तमें
"शर्मा" और क्षत्रियके नामके अन्तमें “वर्मा होना
चाहिये। वैश्य और शूद्रके नामोंके अन्तमें
क्रमश: "गु" और “दास' पदका होना उत्तम
माना गया है। उक्त संस्कारके समय पत्नी
स्वामीकी गोदमें पुत्रको दे ओर कहे--'यह
आपका पुत्र है'॥ १--५॥
फिर कुलाचारके अनुरूप 'चूडाकरण' करे।
ब्राह्मण- बालकका 'उपनयन-संस्कार' गर्भ अथवा
जन्मसे आठवें वर्षमें होना चाहिये। गर्भसे ग्यारहवें
वर्षमे क्षत्रिय बालकका तथा गर्भसे बारहवें वर्षमे
वैश्य-बालकका उपनयन करना चाहिये। ब्राह्मण-
बालकका उपनयन सोलहवें, क्षत्रिय-बालकका
वाईस और वैश्य-बालकका चौबीसवें वर्षसे
आगे नहीं जाना चाहिये। तीनों वर्णोकि लिये
क्रमशः मँज, प्रत्यज्ञा तथा वल्कलकौ मेखला
बतायी गयी है। इसी प्रकार तीनों बर्णोंके
ब्रह्मचारियोंके लिये क्रमशः मृग, व्याघ्र तथा
बकरेके चर्म और पलाश. पीपल तथा ब्रेलके
दण्ड धारण करने योग्य बताये गये हैं। ब्राह्मणका
दण्ड उसके केशतक, क्षत्रियका ललाटतक और
वैश्यका मुखतक लंबा होना चाहिये। इस प्रकार
क्रमशः दण्डोंकी लंबाई बतायी गयी है। ये दण्ड
टेढ़े-मेढ़े न हों। इनके छिलके मौजूद हों तथा ये
आगे जलाये न गये हों॥ ६--९ ॥
उक्त तीनों वर्णोके लिये वस्त्र ओौर यज्ञोपवीत
क्रमशः कपास (रुई), रेशम तथा ऊनके होने
चाहिये । ब्राह्मण ब्रह्मचारी भिक्षा माँगते समय
वाक्यके आदिमे * भवत्" शब्दको प्रयोग करे।
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[जैसे माताके पास जाकर कहे -' भवति
भिक्षां मे देहि मातः।' पूज्य माताजी ! मुझे भिक्षा
दें।] इसी प्रकार क्षत्रिय ब्रह्मचारी वाक्यके मध्यमें
तथा वैश्य ब्रह्मचारी वाक्यके अन्तर्मे "भवत्"
शब्दका प्रयोग करे। (यथा--श्षत्रिय--भिक्षां
भवति मे देहि। वैश्य - भिक्षां मे देहि भवति।)
पहले व्ही भिक्षा मागि, जहाँ भिक्षा अवश्य प्राप्त
होनेकौ सम्भावना हो। स्थ्रियोंक अन्य सभी
संस्कार बिना मन्त्रके होने चाहिये; केवल विवाह-
संस्कार ही मन्त्रोच्चारणपूर्वक होता है। गुरुको
चाहिये कि वह शिष्यका उपनयन (यज्ञोपवीत)
संस्कार करके पहले शौचाचार, सदाचार, अग्निहोत्र
तथा संध्योपासनाकी शिक्षा दे॥ १०-१२॥
जो पूर्वकी ओर मुँह करके भोजन करता है,
वह आयुष्य भोगता है, दक्षिणकी ओर मुँह करके
खानेवाला यशका, पश्चिमाभिमुख होकर भोजन
करनेवाला लक्ष्मी (धन)-का तथा उत्तरी ओर
मुँह करके अन्न ग्रहण करनेवाला पुरुष सत्यका
उपभोग करता है । ब्रह्मचारी प्रतिदिन सायंकाल
ओर प्रातःकाल अग्निहोत्र करे। अपवित्र वस्तुका
होम निषिद्ध है। होमके समय हाथकी नि
परस्पर सराये रहे। मधु, मांस, साथ
विवाद, गाना और नाचना आदि छोड दे। हिंसा,
परायी निन्दा तथा विशेषतः अश्लील-चर्चा (गाली-
गलौज आदि)-का त्याग करे । दण्ड आदि
धारण किये रहे। यदि वह टूट जाय तो जलमें
उसका विसर्जन कर दे और नवीन दण्ड धारण
करे। वेदोंका अध्ययन पूरा करके गुरुको दक्षिणा
देनेके पश्चात् ब्रतान्त-स्नान करें; अथवा नैष्ठिक
ब्रह्मचारी होकर जीवनभर गुरुकुलमें ही निवास
करता रहे॥ १३--१६॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'ब्रह्मचयाश्षिम-वर्णन” वामक'
एक सौ तिरफतवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १५३॥
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