एक सौ चौवनवाँ अध्याय हि
विवाहविषयक बातें
पुष्कर कहते हैं-- परशुरामजी ! ब्राह्मण अपनी
कामनके अनुसार चारों वर्णोकी कन्याओंसे
विवाह कर सकता दै, क्षत्रिय तीनसे, वैश्य दोसे
तथा शुद्र एक ही स्त्रीसे विवाहका अधिकारी है ।
जो अपने समान वर्णकी न हो, ऐसी स्तरीके साथ
किसी भी धार्मिक कृत्यका अनुष्ठान नहीं करना
चाहिये । अपने समान वर्णकौ कन्याओंसे विवाह
करते समय पतिको उनका हाथ पकड़ना चाहिये ।
यदि क्षत्रिय-कन्याका विवाह ब्राह्मणसे होता हो
तो वह ब्राह्मणके हाथमें हाथ न देकर उसके द्वारा
पकड़े हुए बाणका अग्रभाग अपने हाथसे पकड़े।
इसी प्रकार वैश्य-कन्या यदि ब्राह्मण अथवा
क्षत्रियसे ज्याही जाती हो तो वह वरके हाथमें
रखा हुआ चाबुक पकड़े और शूद्र-कन्या वस्त्रका
छोर ग्रहण करे। एक ही बार कन्याका दान देना
चाहिये। जो उसका अपहरंण करता है, वह
चोरके समान दण्ड पानेका अधिकारी है॥ १--३॥
जो संतान बेचनेमें आसक्त हो जाता है,
उसका पापसे कभी उद्धार नहीं होता। कन्यादान,
शचीयोग (शचीकी पूजा), विवाह और
चतुर्थीकर्म --इन चार कर्मोका नाम “विवाह! है।
(मनोनीत) पतिके लापता होने, मरने तथा
संन्यासी, नपुंसक और पतित होनेपर--इन पाँच
प्रकारकी आपत्तियोंके समय (वाग्दत्ता) स्त्रियोंके
लिये दूसरा पति करनेका विधान है। पतिके
मरनेपर देवरको कन्या देनी चाहिये। वह न हो
तो किसी दूसरेको इच्छानुसार देनी चाहिये। वर
अथवा कन्याका वरण करनेके लिये तीनों पूर्वा,
कृत्तिका, स्वाती, तीनों उत्तरा ओर रोहिणी-ये
नक्षत्रे सदा शुभ माने गये हैं॥४--७॥
परशुराम ! अपने समान गोत्र तथा समान
प्रवरमें उत्पन्न हुई कन्याका वरण न करे । पितासे
ऊपरकी सात पीढ़ियोंके पहले तथा मातासे पाँच
पीढ़ियोंके बादकी ही परम्परामें उसका जन्म
होना चाहिये। उत्तम कुल तथा अच्छे स्वभावके
सदाचारी वरको घरपर बुलाकर उसे कत्याका
दान देना ' ब्राह्मविवाह ' कहलाता है। उससे उत्पन्न
हुआ बालक उक्त कन्यादानजनित पुण्यके प्रभावसे
अपने पूर्वर्जोका सदाके लिये उद्धार कर देता है।
बरसे एक गाय और एक बैल लेकर जो
कन्यादान किया जाता है, उसे “आर्ष-विवाह'
कहते हैं। जब किसीके माँगनेपर उसे कन्या दी
जाती है तो वह “प्राजापत्य-विवाह' कहलाता
है; इससे धर्मकी सिद्धि होती है। कीमत लेकर
कन्या देना “आसुर-विवाह' है; यह नीच
श्रेणीका कृत्य है। वर और कन्या जब स्वेच्छापूर्वक
एक-दूसरेको स्वीकार करते हैं तो उसे ' गान्धर्व-
विवाह" कहते हैं। युद्धके द्वारा कन्यके हर
लेनेसे " राक्षस-विवाह ' कहलाता है तथा कन्याको
धोखा देकर उड़ा लेना ' चैशाच-विवाह ' माना
गया है ॥। ८-११॥
विवाहके दिन कुम्हारकी मिट्टीसे शचीकी
प्रतिमा बनाये और जलाशयके तटपर उसकी
गाजे-बाजेके साथ पूजा कराकर कन्याको घर ले
जाना चाहिये। आषाढ़से कार्तिकतक, जब भगवान्
विष्णु शयन करते हों, विवाह नहीं करना
चाहिये। पौष और चैत्रमासमें भी विवाह निषिद्ध
है। मङ्गलके दिन तथा रिक्ता एवं भद्रा तिथियोंमें
भी विवाह मना है। जब बृहस्पति और शुक्र
अस्त हों, चन्द्रमापर ग्रहण लगनेवाला हो, लग्न-
स्थानमें सूर्य, शनैश्चर तथा मङ्गल हों और
व्यतीपात दोष आ पड़ा हो तो उस समय भी
विवाह नहीं करना चाहिये। मृगशिरा, मघा, स्वाती,
हस्त, रोहिणी, तीनों उत्तरा, मूल, अनुराधा तथा