उत्तरपर्व ]
* कमल्वसप्तमी-त्रत *
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थता नाक हका ४ ०००० कावा ४१ 3.2.29५ ११
"सवित्रे नमः" इस नाम-मजखसे गन्ध-पुष्य आदिमे सूर्यकी पूजा
करे । जलपूर्णं कलशके ऊपर शक्करसे भरा पूर्णपात्र स्थापित
करे । उस कलशको रक्त वस्र, शेत माला आदिसे अलंकृत
करे, साथ ही वहाँ एक सुवर्ण -निर्मित अश्च भी स्थापिते के ।
तदनन्तर भगवान् सूर्यका आवाहनकर इस मन्त्रसे उनका
(क्तरपर्व ४९ । ५-६)
"हे भगवान् सूर्यदेव ! यह सारा विश्व एवं सभी देवता
आपके ही स्वरूप हैं, इस कारण आपको ही वेदोका तत्त्वज्ञ
एवं अमृतसर्वस्व कहा गया है। हे सनातनदेव ! आप मेरी
रक्षा करें ।'
तदनन्तर सौरसूक्तका' जप करे अथवा सौरपुराणका'
श्रवण करें। अष्टमीको प्रातः उठकर खान आदि नित्यक्रिया
सम्पन्नकर भगवान् सूर्यका पूजन करे । तत्पश्चात् सारी सामग्री
वेदयेत ब्राह्मणको देकर शर्कर, घृत और प्रायससे यथाशक्ति
ब्राह्मण-भोजन कराये । स्वयं भी मौन होकर तेल और
लवणरहित भोजन करे । इस विधिसे प्रतिमास व्रत करके वर्ष
पूरा होनेपर यथाशक्ति उत्तम शय्या, दूध देनेवाली गाय,
शर्करापूर्ण घट, गृहस्थके उपकरणे युक्त मकान तथा अपनी
सामर्थ्यके अनुकूल एक हजार अथवा एक सौ अधवा पाँच
निष्क सोनेका बना हुआ एक अश्च ब्राह्मणको दान करे ।
भगवान् सूर्वक मुखसे अमृतपान करते समय जो अमृत-बिन्दु
गिरे, उनसे शालि (अगहनी धान), मग और इक्षु उत्पन्न हुए,
शर्करा इक्षुका सार है, इसलिये हव्य-कव्यमें इस शार्कराका
उपयोग करना भगवान् सूर्यको अति प्रिय है एवं यह शर्करा
अमृतरूप है। यह शर्करासप्तमी-त्रत अश्वमेष यज्ञकर फल
देनेवाला है। इस ब्रतके करनेसे संतानकी वृद्धि होती है तथा
समस्त उपद्रव शान्त हो जाते है । इस ब्रतका करनेवाला व्यक्ति
एक कल्प स्वर्गमें निवासकर अन्तमे मोक्ष प्राप्त करता है ।
(अध्याय ४९)
पिरम
कमलसप्तमी-त्रत *
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--महाराज! अब मैं
कमलसप्तमी-ब्रतका वर्णन करता हूँ, जिसके नाम लेनेमात्रसे
ही भगवान् सूर्य प्रसन्न हो जाते हैं। यसन्त ऋतुमे शुक्ल
पक्षकी सप्तमीको प्रातःकाल पीली सरसोंयुक्त जलसे लान
करे। एक पात्रे तिल रखकर उसमें सुवर्णका कमल बनाकर
स्थापित करे और उसमें भगवान् सूर्यकी भावना कर दो वससे
आवृत्त करे तथा गन्ध-पुष्यादि उपचारोंसे पूजाकर निम्नलिखित
श्लोकसे प्रार्थना करें--
नमस्ते पद्महस्ताय नमस्ते. विश्वथारिणे ॥
दिवाकरनमस्तुभ्य॑ प्रभाकर नमोऽस्तु ते।
(उक्तपर्व ५० । ३-४)
तदनन्तर वस, माला तथा अलंकारोंसे सुसज्जित उस __
उदककुम्भको प्रतिमासहित ब्राह्मणको पूजाकर प्रदान कर दे।
दूसरे दिन अष्टमीको यथाशक्ति ब्राह्मणोंको भोजन कराये और
स्वयं भी तेल आदिसे रहित विशुद्ध भोजन करे। इसी प्रकार
वर्षपर्यन्त प्रत्येक मासकी शुक्ल सप्तमीको भक्तिपूर्वक वरत
करे । ब्रतकी समाप्तिपर वह भक्तिपूर्वक सुवर्ण-कमल,
सुवर्णकी पयस्विनी गौ, अनेक पात्र, आसन, दीप तथा अन्य
सामग्रियाँ ब्राह्मणक दानमें दे। इस विधिसे जो कमल-
सप्तमीका व्रत करता है, वह अनन्त लक्ष्मीको प्राप्त करता है
और सूर्यलोकमें प्रसन्न होकर निवास करता है। कल्प-कल्प
भर सात लोकोमें निवास करता हुआ अन्तमें परमगतिको प्राप्त
करता है ।
(अध्याय ५०)
१-ऋग्षेटके प्रथय मण्डलक ५०वाँ सूक्त सूर्वसूक्त या सौरसूक्त कहलाता दै ।
२-सौरपुराणसे मुख्य तात्पर्य है भविष्यपुराण और स्वम्बपुराण । आजकल सौरपुराणके अमसे प्रकाशित जो सूर्यपुराण हैं, कस्तयमे ये शैषपुराण
हैं सौर नहीं।
३- धकिष्यपुगाणच् यह अध्याय भी मल्यषुराणके अ« ७७ में प्रायः इर रूपणे प्राप्त होता है।
४-कई व्रत-निबन्धों एवं पुराणोंमें इसे हौ कमल-बन्मी भौ कहा गया है।