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प्रतिमा निर्माण वर्णन | [ ५३३

आपोडशा तु प्रासादे कतव्या नाधिका ततः ।

मध्योत्तमकनिष्ठा तु कार्या वित्तानुसारतः ।२३

द्वारोच्छायस्य यन्मानमष्टधा तत्त्‌, कारयेत्‌ ।

भागमेकं ततस्त्यक्त्वा परिशिष्टन्तु यद्भवेत्‌ ।र४

भागद्वयेन प्रतिमा त्रिभागीक्रत्य तत्पुनः ।

पीठिका भागतः कार्या नातिनीचा नचोच्छिता ।२५

प्रतिमामृखमानेन नवभागान्‌ प्रकल्पयेत्‌ ।

चतुरगुला भव्रदुप्रीवाभागेन हृदयंपुनः ।२६

नाभिस्तस्मादधः कार्या भागेनेकेन शोभना ।

निम्नत्वेविस्तरत्वे च अ गृलंपरिकोतितम्‌ ।२७

नानेरधस्तथामेद्‌ भागेनैकेन कल्पयेत्‌ ।

द्विभागेनायतावृरू जानुनौ चतुरंगुले ।२८

अपने अग॒ठे के पर्व मे आरम्भ करके एक वितस्ति (बिलाँद या

बलिश्त) पर्यन्त लम्बी और बडी देव प्रतिमा निर्मित करानी चाहिए ।

बुध थुरुष के द्वारा इस प्रमाणों से अधिक बड़ी प्रतिसा को प्रशस्त नहीं

बतलाया गया है ।२२। जो प्रासाद हीं इसमें पोडण से अधिक बड़ी

प्रतिमा कभी नहीं करानी चाहिए। अपने चित्तके अनुसार उत्तम-मध्यम

और कनिष्ठ प्रतिमा का निर्माण कराना आवश्यक है ।२३। द्वार के

उच्छाय का जो मान है उसका आठ भाग करे | उनमेंसे एक भाग का

त्याग करके जो परिशिष्ट होबे ।२४। उनमें से दो भागों के प्रमाण से

प्रतिमा की रचना करानी चाहिए । फिर उसके तीन भाग करके भाग

से पीठिका की रचना करे । पीठिका न तो अत्यन्त नीची होनी चाहिए

ओर न अधिक उच्छित ही होनी चाहिए ।२५) प्रतिमा के मुख मान से

नौ भागों की प्रकल्पना करनी चाहिए । चार अ गुल वाली ग्रीवा होवे

ओर फिर भाम के द्वारा हृदय को रचना होनी चाहिए ।२६। उसके

अर्थात्‌ उरःस्थल के नीचे एक भाग से परम शोभन नाभि का निर्माण

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