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* क्षर-अक्षर-तत्त्वके विषयमें राजा करालजनक और वसिष्ठका संवाद * ४१७

पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा वाणी, हाथ, चैर, गुदा ओर | है । वह चेतनरूपसे सबको चेतना प्रदान करता

लिङ्ग-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। मनके सहित इन । है। वह स्वयं अमूर्तं होते हुए भी सर्वमर्तिस्वरूप

सबका प्रादुर्भाव हुआ है । ये चौबीस तत्त्व सम्पूर्ण | है। सृष्टि और प्रलयरूप धर्मसे वह सूष्टिस्वरूप

शरीरोंमें मौजूद रहते हैं। इनके स्वरूपको भलीभाँति | भी है और प्रलयस्वरूप भी। वही विश्वरूपमें

जानकर तत्त्वदर्शों ब्राह्मण कभी शोक नहीं करते। , सबको प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है । वह निर्गुण होते

नरश्रेष्ठ! यह त्रिलोकी उन्हीं तत्त्वोंसे बनी है। | हुए भी गुणस्वरूप है। वह परमात्मा करोड सृष्टि

देवता, मनुष्य, यक्ष, भूत, गन्धर्व, किंनर, महानाग, | ओर प्रलय करता रहता है, तथापि उसे अपने

चारण, पिशाच, देवर्षि, निशाचर, दंश, कीट, ` कर्तृत्वा अभिमान नहीं होता।

मशक, दुर्गन्थित कीड़े, चूहे, कुत्ते, चाण्डाल, | अज्नानी पुरुष तमोगुण, सत्त्वगुण और रजोगुणसे

हिरन, पुक्कस, हाथी, घोड़े, गदहे, व्याघ्र, भेडिये | युक्तं होकर तदनुकूल योनियोंमें जन्म लेता है ।

तथा गौ आदि जितने भी मूर्तिमान्‌ पदार्थ हैं, उन वह ज्ञान न होने, अज्ञानी पुरुषोंका सेवन करने

सबमें इन्हों तत्त्वोंका दर्शन होता है। पृथ्वी, जल | तथा उनके सम्पर्कमें रहनेसे ऐसा अभिमान करने

और आकाशम ही प्राणिर्योका निवास है; अन्यत्र | लगता है कि “मैं बालक हूँ, यह हूँ, बह हूँ और

नहीं। यह सम्पूर्ण जगत्‌ व्यक्त कहलाता है । वह न्ह हूँ! इत्यादि । इस अभिमानके कारण वह

प्रतिदिन इसका क्षरण (क्षय) होता है, इसलिये | प्राकृत गुर्णोका ही अनुसरण करता है । तमोगुणके

इसको क्षर कहते है । इससे भिन्न तत्त्व अक्षर | सेवनसे वह नाना प्रकारके तामसिक भावोंको प्राप्त

कहा गया है । सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा परमेश्चरको | होता है । रजोगुणके सेवनसे राजसिक और सत्त्वगुणके

हो अक्षर कहते है । इस प्रकार उस अव्यक्त | आश्रयसे वह सात्विक रूप ग्रहण करता ड ।

अक्षरसे उत्पन्न यह व्यक्त नामवाला मोहात्मक | काले, लाल और श्वेत-ये जो तीन प्रकारके रूप

जगत्‌ सदा क्षयशील होनेके कारण क्षर' नाम , हैं, उन सबको प्राकृत ही जानो । तमोगुण पुरुष

धारण करता है । क्षरतत्त्वोंमें सबसे पहले महत्तत्वकी | नरकमें पड़ते है, रजोगुणी मनुष्यलोकमें आते हैं

सृष्टि हुई है। यही क्षरका निरूपण है । महाराज! | और सत्त्वगगुणका आश्रय लेनेवाले जीव सुखके

तुम्हारे प्रश्वके अनुसार मैंने क्षर-अक्षरका वर्णन | भागी होकर देवलोकमें जाते हैं। केवल पापसे

किया। अक्षरतत््व पच्चौसवोँ तत्त्व है। वह नित्य | (पापकी प्रधानतासे) पशु-पक्षियोंको योनिमें

एवं निराकार है। उसको प्राप्त कर लेनेपर इस | जाना पड़ता है। पुण्य और पाप दोनोंका मेल

संसारमें लौटना नहीं होता। जो अव्यक्ततत्त्व इस | होनेसे मनुष्यलोककी प्राप्ति होती है तथा केवल

व्यक्त जगत्‌की सृष्टि करता है, वह प्रत्येक शरीरमें | पुण्यसे (पुण्यकी प्रधानतासे) जौव देवताका

साक्षीरूपसे निवास करता है। चौबीस तत्त्वोंका ' स्वरूप प्राप्त करता है। अव्यक्त परमात्मामें जो

समुदाय तो व्यक्त है, किंतु उनका साक्षी पच्चीसवाँ | स्थिति होती है, उसीको मनीषी पुरुष मोक्ष

तत्त्व परमात्मा निराकार होनेके कारण अव्यक्त है। | कहते हैं। वे परमात्मा ही पत्चीसवाँ तत्त्व हैं।

वही सम्पूर्ण देहधारियोंके हृदयमें निवास करता ज्ञानसे ही उनकी प्राप्ति होती है।

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