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धर्मकाण्ड--प्रेतकल्प ]

* चौरासी लाख योनियॉमें मनुष्यजन्मकी श्रेष्ठता *

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हे कश्यपनन्दन! सत्कर्मसे जिसने अपने कालुष्यको नष्ट

कर दिया है, वह व्यक्ति वासुदेवके निरन्तर चिन्तनसे विशुद्ध

हुई बुद्धिसे युक्त होकर धैर्यसे अपना नियमन करके स्थिर

रहता है, जो शब्दादि विषर्योका परित्याग कर ण्ग-द्वैषको छोड़कर

विरक्त, सेवी और यथाप्राप्त भोजनसे संतुष्ट रहता है, जिसका

मन-वाणी-शरीर संयमित है, जो वैराग्य धारणकर नित्य ध्यान-

योगमें तत्पर रहता है, जो अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध

और परिग्रह-इन षड्विकारोका परित्याग करके निर्भय

होकर शान्त हो जाता है, वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है । इसके

कर्मविभ्रष्टकालुष्यो वासुदेवानुचिन्तया।

शुद्ध विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च॥

(१९। ९३ ९६)

बाद मनुष्योकि लिये कुछ करना शेष नहीं रह जाता- (अध्याय १०)

जीवकी ऊर्ध्वगति एवं अधोगतिका वर्णन

गरुडजीने कहा--हे देवश्रेष्ठ ! मनुष्ययोनि कैसे प्राप्त कर सकता ओर वायुके द्वारा इसका शोषण सम्भव नहीं है।

होती है? मनुष्य कैसे मृत्युकों प्राप्त होता है? शरीरका

आश्रय लेकर कौन मरता है? उसकी इन्द्रियाँ कहाँसे

कहाँ चलौ जाती हैं? मनुष्य कैसे अस्पृश्य हो जाता है?

यहाँ किये हुए कर्मको कहाँ और कैसे भोगता है और कहाँ

कैसे जाता है? यमलोक और विष्णुलोकको मनुष्य कैसे

जाता है? हे प्रभो! आप मुझपर प्रसन्‍न हों। मेरे इस सम्पूर्ण

भ्रमको विनष्ट करें।

श्रीकृष्णने कहा-हे विनतानन्दन! परायी स्त्री और

ब्राह्मणके धनका अपहरण करके प्राणी अरण्य एवं निर्जन

स्थानें रहनेवाले ब्रह्मराक्षसकौ योनिको प्राप्त करता है।

रत्रोंकी चोरी करनेवाला मनुष्य नीच जातिके घर उत्पन्न

होता है। मृत्युके समय उसकी जो-जो इच्छाएँ होतो हैं,

उन्हींके वशीभूत हो वह उन-उन योनियोंमें जाकर जन्म

लेता है। इस जीवात्माका छेदन शस्त्र नहीं कर सकता,

अग्नि इसको जलानेमें समर्थ नहों है, जल इसे आर्द्र नहीं

है पक्षित्‌! मुख, नेत्र, नासिका, कान, गुदा और

मूत्रनलौ-ये सभी छिद्र अण्डजादिक जोवोंके शरीरमें

विद्यमान रहते हैं। नाभिसे मूर्धापर्यन्त शरीरमें आठ द्र हैं।

जो सत्कर्म करनेवाले पुण्यात्मा हैं, उनके प्राण शरीरके

ऊर्ध्वं छिद्रॉसे निकलकर परलोक जाते है । मृत्युके दिनसे

लेकर एक वर्षतक जैसी विधि पहले यतायौ गयौ है,

उसीके अनुसार सभी ओर्ध्वदैहिक श्राद्धादि संस्कार निर्धन

होनेपर भी यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक करने चाहिये । जीव जिस

शरीरम वास करता है उसी शरीरे वह अपने शुभाशुभ

कर्मफलका भोग करता है । हे पक्षिराज! मन, वाणी और

शरीरके द्वारा किये गये दोषोंको वह भोगता है। जो

[अनासक्तभावसे} सत्कर्ममें रत रहता है, वह मृत्युके बाद

सुखी रहता है और सांसारिकताके मायाजालमें नहीं फैसता।

जो विकर्म निरत रहता है वह मनुष्य पाशबद्ध हो जाता

है । (अध्याय ११)

व ००००

चौरासी लाख योनियोंमें मनुष्यजन्मकी श्रेष्ठता, मनुष्यमात्रका

एकमात्र कर्तव्य-- धर्माचरण

श्रीकृष्णजीने कहा--हे तार्क्य! मनुष्यौके हित एवं उन्हें अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज और अयायुज कहा जाता

प्रेवत्वकी विमुच्छिके लिये जीवित प्राणौके कर्म-विधानका है। इक्कीस लाख योगियाँ अण्डज मानी गयी हैं। इसी

निर्णय मैंने तुम्हें सुना दिया। इस संसारमे चौरासौ लाख प्रकार क्रमशः स्वेदज, उद्भिज्ज तथा जरायुज योनियोंके

योगियाँ है । उनका विभाजन चार प्रकारके जीवॉमें हुआ है । विषयमे भी कहा गया है । मनुष्यादि योनियाँ जरायुज कही

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