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* पुराणं गारुड वक्ष्ये सारे विष्णुकथाअयम्‌ *

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चाण्डाल पितरोंकी तृप्ति होती है।

है पक्षिन्‌! इस संसारम श्राद्धके निमित्त जो कुछ भी अन,

धन आदिका दान अपने बन्धु-बान्धवोंके द्वारा दिया जाता है,

यह सब पितरोंको प्राप्त होता है। अन, जल और शाक-पात

आदिके द्वारा यधासामर्थ्य जो श्राद्ध किया जाता है, वह सब

पितरॉकी तृप्तिका हेतु है। तुमने इस विषयमें जो कुछ पूछा

था, वह सब मैंने तुम्हें बता दिया। तुम अब जो यह पूछ

रहे हो कि मृत्युके बाद प्राणोकों तत्काल दूसरे शरीरकी

प्रसि हौ जाती है? अधवा विलम्बसे उसको दूसरे शरीरमें

जाना पड़ता है? वह मैं तुम्हें संक्षेपमें बता रहा हूँ।

हे गरुड ! प्राणी मृत्युके पश्चात्‌ दूसरे शरीरमें तुरंत भी

प्रविष्ट हो सकता है और विलम्बसे भौ । मनुष्य जिस कारण

दूसरे शरीरको प्राप्त करता है, उस वैशिष्टयको तुम मुझसे

सुनो। शरीरके अंदर जो धूमरहित ज्योतिके सदुश प्रधान

पुरुष जीवात्मा विद्यमान रहता है, बह मृत्युके बाद तुरंत

ही वायवीय शरीर धारण कर लेता है। जिस प्रकार एक

तृणका आश्रय लेकर स्थित जॉक दूसरे तृणका आश्रय

लेनेके बाद पहलेवाले तृणके आश्रयसे अपने चैरको आगे

बढ़ाता है, उसी प्रकार शरीरी पूर्व-शरीरकों छोड़कर दूसरे

शरीरम जाता है। उस समय भोगके लिये वायवीय शरीर

सामने हौ उपस्थित रहता है। मरनेवाले शरीरके अंदर

विषय ग्रहण करनेवाली इन्द्रियाँ उसके निश्चेष्ट (निर्व्यापार)

हो जानेपर वायुके साथ चली जातो हैं। वह जिस शरीरकों

प्राप्त करता है उसको भी छोड़ देता है। जैसे स्त्रीके शरीरमें

स्थित गर्भ उसके अननादिक कोशसे शक्ति ग्रहण करता है

और समय आनेपर उसे छोड़कर वह याहर आ जाता है,

वैसे ही जीव अपना अधिकार लेकर दूसरे शरीरमें प्रवेश

करता है। उस एक शरीरमें प्रविष्ट होते हुए प्राणीके

कालक्रम, भोजन या गुण-संक्रमणकी जो स्थिति है उसे

मूर्ख नहीं, अपितु ज्ञानी व्यक्ति हो देखते हैं।

विद्धान्‌ लोग इसको आतिवाहिक वायवीय शरीर कहते

हैं। हे सुपर्ण! भूत-प्रेत और पिशार्चोका शरीर तथा

मनुष्योंका पिण्डज शरीर भी ऐसा ही होता है ।

हे पश्चनद्र। पुत्रादिके द्वारा जोः दशगात्रके पिष्डदान दिये

जाते है, उस पिण्डज शरीरस वायवौय शरीर एकाकार हो

जाता है । यदि पिण्डज देहका साथ नहीं होता है तो वायुज

शरीर कष्ट भोगता है । प्राणीके इस शरीरम जैसे कौमाय,

यौवन और बुढ़ापेकी अवस्थाएँ आती हैं, बैसे हौ दूसरे

शरीरके प्राप्त होनेपर भी तुम्हें समझना चाहिये। जिस प्रकार

मनुष्य पुराने वस्त्रोंका परित्याग कर नये वस्व्रोंकों धारण कर

लेता है, उसी प्रकार शरीरौ पुराने शरीरका परित्याग कर

नये शरीरकों धारण करता है। इस शरीरीको न शस्त्र छेद

सकता है, न अग्नि जला सकती है, न जल आर्द्र कर

सकता है और न वायु सुखा सकती है-

देहिनोउस्मिनू यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तरप्राप्ति: पक्षीन्रेत्पवधारय॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

वानि गृह्णाति बरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जी्णां-

न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥

(१०।८३-- ८५)

जीव तत्काल वायवीय शरीरे प्रवेश कर लेता है, यह

तो मैंने तुम्हें बता दिया; अब जीवात्माको विलम्बसे जैसे

दूसरा शरीर प्राप्त होता है, उसको तुम मुझसे सुनो ।

है गरुड! कोई-कोई जीवात्मा पिण्डज शरीर विलम्बसे

प्राप्त करता है; क्योकि मूत्युके याद वह स्वकर्मानुसार

यमलोकको जाता है । चित्रगुप्तकी आज्ञासे बह बहाँ नरक

भोगता है । वहाँकी यातनाओंकों झेलनेके पश्चात्‌ उसे पशु-

पक्षी आदिक योनि प्राप्त होती है। मनुष्य जिस शरीरको

ग्रहण करता है, उसी शरीरमें मोहवश उसकी ममता हो

जाती है। शुभाशुभ कर्मोंके फल भोगकर मनुष्य इससे मुक्त

भी हो जाता है।

गरुडने कहा--हे दयानिधे! बहुत-से पापोंकों करनेके

बाद भी इस संसारको पार करके प्राणी आपको कैसे प्राप्त

कर सकता है? उसे आप मुझे बतायें। हे लक्ष्मीरमण ! जिस

प्रकार मनुष्यका संसर्ग पुतः दुःखसे न हो उस उपायको

बतानेकी कृपा करें।

श्रीकृष्णने कहा--हे पक्षिराज! प्रत्येक मनुष्य अपने-

अपने कर्म रत रहकर संसिद्धि प्राप्त कर लेता है। अपने

कर्मभे अनुरक्त रहकर वह उस सिद्धिकों जिस प्रकार प्राप्त

करता है, उसको तुम मुझसे सुनो-

स्वे स्ये कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तृच्छुणु॥

(१०।९२)

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