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है, भूलकर इस मिथ्या द्रैतको सत्य मानता हुआ अत्यन्त
भयङ्कर ओर विचित्र जन्मों और मृत्युओमिं भटकता रहता
है ॥ २७॥ जैसे अज्ञानी मनुष्य जलमें उत्पन्न तिनके और
सेवारसे ढके हुए जलको जल न समझकर जलके लिये
मुगतृष्णाकी ओर दौडता है, वैसे हो अपनी आत्मासे
भिन्न वस्तुमे सुख समझनेवाला पुरुष आत्पाको छोड़कर
विषयोंकी ओर दौड़ता है ॥ २८ ॥ प्रहवादजी ! शरीर आदि
तो प्रारव्धके अधीन हैं। उनके द्वारा जो अपने लिये सुख
पाना और दुःख मिटाना चाहता है, वह कभी अपने कार्यम
सफल नहीं हो सकता। उसके बार-बार किये हुए सारे
कर्म व्यर्थ हो जाते है ॥ २९॥ मनुष्य सर्वदा शारीरिक,
मानसिक आदि दुःखोसे आक्रान्त ही रहता है। मरणशील
तो है ही, यदि उसने बड़े श्रम और कष्टसे कुछ घन और
भोग प्राप्त कर भी लिया तो क्या लाभ है? ॥ ३०॥
लोभौ और इन्द्रियोंके वशम रहनेवाले धनियोंका दुःख तो
मैं देखता ही रहता हूँ। भयके मारे उन्हें नींद नहीं आती ।
सबपर उनका सन्देह बना रहता है॥३१॥ जो जीवन
और धनके लोभी हैं--बे राजा, चोर, शत्रु, स्वजन,
पशु-पक्षौ, यायक और कालसे, यहाँतक कि “कहां
मैं भूल न कर बैठूँ, अधिक न खर्च कर दूँ'--इस
आशङ्कसे अपने-आपसे भी सदा डरते रहते हैं॥ ३२ ॥
इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि जिसके कारण
शोक, मोह, भय, क्रोध, राग, कायरता और श्रम आदिका
शिकार होना पड़ता है--उस धन और जीवनकी स्पहाका
त्याग कर दे॥ ३३ ॥
इस लोकमें मेंरे सबसे बड़े गुरु हैं--अजगर और
मधुमक्छौ । उनकी शिक्षासे हमे वैसम्य और सन्तोषकी
प्राप्ति हुई है ॥ ३४॥ मधुमक्खी जैसे मधु इकट्ठा करती
है, वैसे ही लोग बड़े कष्टसे धन-सञ्चय करते हैं; परन्तु
दूसरा ही कोई उस धन-राशिके स्वामीको मारकर उसे छीन
लेता है। इससे मैंने यह शिक्षा ग्रहण को कि
विषय-भोगोंसे विरक्त हौ रहना चाहिये॥३५॥ मैं
अजगरके समान निश्चेष्ट पड़ा रहता हूँ और दैकवश जो
कुछ मिल जाता है, उसीमें सन्तुष्ट रहता हूँ और यदि कुछ
नहीं मिलता, तो बहुत दिनॉतक घैर्य धारण कर यों ही पड़ा
रहता हूँ॥ ३६ ॥ कभी थोड़ा अन्न खा लेता हूँ तो कभी
* श्रीमद्धागवत *
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बहुत; कभी स्वादिष्ट तो कभी नीरस--बेस्वाद; और कभी
अनेकों गुणोंसे युक्त, तो कभी सर्वथा गुणहीन॥ ३७॥
कभी बड़ी श्रद्धासे प्राप्त हुआ अन्न खाता हूँ तो कभी
अपमानके साथ और किसी-किसी समय अपने-आप ही
मिल जानेपर कभी दिनमें, कभी रातमें और कभी एक बार
भोजन करके भी दुबारा कर लेता हूँ॥ ३८॥ मै अपने
प्रारब्धके भोगमें ही सन्तुष्ट रहता हूँ। इसलिये मुझे रेशमी
या सूती, मृगचर्म या चीर, वल्कल या और कुछ--जैसा
भी वसन मिल जाता है, वैसा ही पहन लेता हूँ॥ ३९ ॥
कभी मैं पृथ्वी, घास, पत्ते, पत्थर या राखके ढेरपर ही पड़
रहता हूँ, तो कभी दूसरौकौ इच्छसे महलोंमें पटो ओर
गद्ांपर सो लेता हूँ ४० ॥ दैत्यराज ! कभी नहा-धोकर,
शरीरमें चन्दन लगाकर सुन्दर वस्त्र, फूलोंके हार और
गहने पहन रथ, हाथी और घोड़ेपर चढ़कर चलता हैँ, तो
कभी पिशाचके समान बिलकुल नंग-घड़ंग विचरता
हूँ ॥ ४१॥ मनुष्योकि स्वभाव भिन्न-भिन्न होते ही हैं। अतः
न तो मैं किसीकी निन्दा करता हूँ और न स्तुति हो। मैं
केवल इनका परम कल्याण ओर् परमात्मासे एकता चाहता
हूँ ॥ ४२ ॥
सत्यका अनुसन्धान करनेवाले मनुष्यकों चाहिये कि
जो नाना प्रकारके पदार्थ और उनके भेद-विभेद मालूम पड़
रहे हैं, उनको चित्तवृत्तिमें हबन कर दे । चित्तवृत्तिको इन
पदाथेकि सम्बन्धमें विविध भ्रम उत्पन्न करनेवाले मनमें,
मनको सात्तिक अङ्कारमे ओर सात्विक अहङ्कारो
महत्तत्त्वके द्वारा मायामे हवन कर दे । इस प्रकार ये सब
भेद-विभेद् और उनका कारण माया ही है, ऐसा निश्चय
करके फिर उस्र मायाको आत्मानुभूतिमे स्वाहा कर दे । इस
प्रकार आत्पसाक्षात्कारके द्वार आत्मस्वरूपं स्थित होकर
निष्क्रिय एवं उपरत हो जाय ॥ ४३-४४ ॥ प्रह्मादजी ! मेरी
यह आत्पकथा अत्यन्त गुप्त एवं लोक और शाख्से परेकी
वस्तु है। तुम भगवानके अत्यन्त प्रेमी हो, इसलिये मैंने
तुम्हारे प्रति इसका वर्णन किया है ॥ ४५॥
नारदजी कहते हैं--महाराज ! प्रह्मादजीने दत्तात्रेय
मुनिसे परमर्हसोकि इस धर्मका श्रवण करके उनकी पूजा
की और फिर उनसे विदा लेकर बड़ी प्रसन्नतासे अपनी
राजघानौके लिये प्रस्थान किया ॥ ४६ ॥
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