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करके सम्पूर्ण जगत्‌को मर्यादाका पाठ पढ़नेवाले

श्रीरघुनाथजीने माताके भवनमें जानेका विचार किया वे

राजाओंके राजा तथा अच्छी नीतिका पालन करनेवाले

* अर्चयस्व हृषीकेश यदीच्छसि परं पदम्‌ +

######## # कै *%

उत्कण्ठासे विह्वल हो रहा था; उन्होंने अपने रामको

थे; अतः पालकीपर बैठे हुए ही सबसे पहले अपनी ए |

माता कैकेयीके घरमें गये। कैकेयी लजाके भारसे दबी

हुई थी, अतः श्रीरामचनद्रजीको सामने देखकर भी वह

कुछ न बोली। बारैबार गहरी चिन्ताम डूबने छगी।

सूर्य-बंशकी पताकं फहरानेवाले श्रीरामने माताको

लज्जित देखकर उसे बिनययुक्त वचनद्वारा सान्त्वना देते

हुए कहा।

आज्ञाका पूर्णरूपसे पालन किया है। अब बताओ,

तुम्हारी आज्ञासे इस समय कौन-सा कार्य करूँ ?

श्रीरामकी यह बात सुनकर भी कैकेयी अपने

मुँहको ऊपर न उठा सकी, वह धीरे-धीरे नोली--'बेटा

राम ! तुम निष्पाप हो । अब तुम अपने महलमें जाओ ।'

माताका यह वचन सुनकर कृपा-निधान श्रीरामचन्द्रजीने

भी उन्हें नमस्कार किया और वहाँसे सुमित्राके भवनमें

गये। सुमित्राका हदय बड़ा उदार था, उन्होंने अपने पुत्र

लक्ष्मणसहिते श्रीरामचन्द्रजीको उपस्थित देख आशीर्वाद

देते हुए कहा--'बेटा! तुम चिरजीवी हो।'

श्रीरामचन्द्रजीने भी माता सुमित्राके चरणोमें प्रणाम करके

बारेबार प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा--'माँ!

लक्ष्मण-जैसे पुत्ररत्रक्ों जन्म देनेके कारण तुम रत्रगर्भा

हो; बुद्धिमान्‌ लक्ष्मणने जिस प्रकार हमारी सेवा की है,

जिस तरह इन्होंने मेरे कष्टोंका निवारण किया है वैसा

कार्य और किसीने कभी नहीं किया। रावणने सीताको

हर लिया। उसके बाद मैंने पुनः जो इन्हें प्राप्त किया है,

वह सब तुम लक्ष्मणका ही पराक्रम समझो ।' यों कहकर

तथा सुमित्राके दिये हुए आज्ञीर्वादको शिरोधार्य करके वे

देवताओंके साथ अपनी माता कौसल्याके महलमें गये ।

माताको अपने दर्जनके लिये उत्कण्ठित तथा हर्षमग्न

देख भगवान्‌ श्रीराम तुरंत ही पाल्कीसे उतर पड़े और

निकट पहुँचकर उन्होंने माताके चरणोंकों पकड़ लिया।

माता कौसल्याका हृदय येटेका मुँह देखनेके लिये

शरीरा ओोले--माँ! मैंने वनमे जाकर तुना |

गयी

नेत्रॉंसे आनन्दके आँसू प्रवाहित होकर चरणोको भिगोने

लगे। विनयशील श्रीरघुनाथजीने देखा कि "माता

अत्यन्त दुर्बल हो गयी हैं। मुझे देखकर ही इन्हें

कुछ-कुछ हर्ष हुआ है ।' उनकी इस अवस्थापर दृष्टिपात

करके उन्होंने कहा।

श्रीराम खोले--माँ ! मैंने बहुत दिनतक तुम्हारे

चरणोकी सेवा नहीं की है, निश्चय ही मैं बड़ा भाग्यहीन

हूँ; तुम मेरे इस अपराधको क्षमा करना। जो पुत्र अपने

माता-पिताकी सेवाके लिये उत्सुक नहीं रहते, उन्हें

रज-वीर्यसे उत्पन्न हुआ कीड़ा ही समझना चाहिये । क्या

करूँ, पिताजीकी आज्ञासे मैं दण्डकारण्यमें चला गया

था। वासे रावण सीताको हरकर लङ्काम ले गया था;

किन्तु तुम्हारी कृपासे उस राक्षसराजको मारकर मैंने पुनः

इन्हें प्राप्त किया है । ये पतिब्रता सीता भी तुम्हारे चरणोंमें

पड़ी हैं, इनका चित्त सदा तुम्हारे इन चरणोंमें ही लगा

रहता है।

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