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४३२ | | मत्स्य पुराण

स्वकीयांगुलिमानेन मुखे स्याद्द्वादर्शांगुलम्‌ ।

मुखमानेन कत व्या स्बवियवकल्पना । १६

सौवर्णीराजती वापि ताञ्नी रत्नमयी तथा ।

शली दारुमयी चापि लोहसंघसयी तथा ।२०

रीतिकाधात युक्ता वा तास्रकास्यमयी तथा ।

शभदारुमयी वापि देवतार्चा प्रणस्यते ।२१

कल्पलता से संयुक्त तथा देवगणो के द्वारा स्तुति किये जाने वाले

भगवान त्रिष्णु को स्थापित करे । इन विष्णु की तीन भाग से वहाँपर

पीरिका होना चाहिए।१५। वह पीठिका जो है उसके समीप पे नवताल

प्रमाण वाले देव गन्धर्वं और किन्नर स्थापित करे । अब इसके आगे

विशेष रूप से मानोन्मान के विषय में वर्णन करता हूँ ।१६। जाल के

अन्तर में प्रविष्ट भानु की किरणों के द्वारा जो स्फुट रूपसे रजके कण

दिखलाई दिया करतेहैं उनको त्रसरेणू जानना चाहिए । वे बालके अग्र

भाग के समान होते हैं उन आठों की एक शिक्षा होती है। आठ

शिक्षाओं की एक यूका मानी गयीहै । आठ यूकाओं का एक यव होता

है और आठ यवोंका एक अ गुल हुआ करता है।१७-१८। अपने अं गुल

के मानसे द्वादश अगुलों का मुख होता है । इस मुख के मान के द्वारा

ही समस्त अबयों की कल्पना करनी चाहिए ।१६। भगवान्‌ की प्रति-

मार्यें सुवर्ण से---रजत (चाँदी)से निभिल होती हैं तथा ताम्र और रत्नों

के द्वारा निर्मित की हुई हुआ करती है । शैली अर्थात पाषाण से-द।रु-

मयी अर्थात्‌ विशुद्ध काष्ठसे भी निर्माण की हुई प्रतिमायें होती हैं और

लोहे के संघ से पूर्ण होती हैं रीति का अथवा धातुमे युक्त-ताम्र और

कांस्य के मिश्रण से निर्मित या शुभ काष्ठ के निग्रह वाल" देवता की

प्रतिमा कौ अर्चा प्रशस्त होती है ।२०-२१।

अ गरष्ठपर्वादारभ्यः वितस्तियविदेव त. ।

गृहेषु प्रतिमा कार्या नाधिका शस्यते बुधे: ।२२

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