दे४ अथर्ववेद संहिता भाग-१
२८७८. यो वेतसं हिरण्ययं तिष्ठन्तं सलिले वेद । स वै गुह्यः प्रजापति: ॥४९ ॥
जो सलिल ( अन्तरिक्ष) ये स्थित तेजोमय वेतस् ( संसार) को जानता है, वही गुह्य प्रजापति है ॥४१ ॥
२८७९. तन्त्रमेके युवती विरूपे अभ्याक्रामं वयतः षण्मयूखम् ।
प्रान्या तन्तुंस्तिरते धत्ते अन्या नाप वृञ्जाते न गमातो अन्तम् ॥४२ ॥
दो विरुद्ध रूपवाली युवत्तियाँ (उषा ओर रात्रि हैं । ये छह खूटियों ( छह ऋतुओं ) वाले विश्वरूपा जाल को
बुन रही हैं । एक, तन्तुओं ( किरणों ) को फैलाती है तथा अन्य दूसरी उन्हें अपने मेँ धारणकर (समेट) लेती है । ये
दोनों न तो विश्राम करती हैं और न इनका कार्य अन्त तक पहुँचता है ॥४२ ॥
२८८०, तयोरहं परिनृत्यन्त्योरिव न वि जानामि यतरा परस्तात् ।
पुमानेनद् वयत्युद् गृणत्ति पुमानेनद् वि जभाराधि नाके ॥४३॥
नृत्य के सपान श्रम करती हुई, उन दोनों युवतियों में कौन सी पहली है, हम यह नहीं जानते इसको एक
पुरुष बुनता है तथा दूसरा पुरुष उकेलता (तन्तुं को उधेडता) है । इसको वह स्वर्ग में घारण करता है ॥४३ ॥
२८८१. इमे मयूखा उप तस्तभूर्दिवं सामानि चक्रुस्तसराणि वातवे ॥४४ ॥
वे मयूखें ( किरणे ) ही द्युलोक को धामकर रखती ह । साम (तालमेल के साथ चलने) वाले दिव्य प्रवाह
उस तन्तुजाल को बनाए हुए हैं ॥४४ ॥
[ ८- ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त ]
[ऋषि- कुत्स । देवता- आत्मा (अध्यात्म) । छन्द-बरिष्ूष, १ उपरिष्टात् विराद बृहती, २ बृहती गर्भा अनुष्टुप,
५ भुरिक् अनुष्टप् ६, १४, १९- २१, २३, २५, २९, ३१-३४, ३७-३८, ४१, ४३ अनुष्टुप, ७ पराबृहती रिष्ट,
१० अगा वह, ११ जगती, १२ पुरोबृहती ष पंक्ति, १५, २७ पव २२ पुरउष्णिक्,
२६ द्रयुष्णिक् गर्भा अनुष्टुप, ३० भुरिक् त्रिष्टुप्, ३९ वृहती ग षु ५२ विरार् गायत्री ।]
इस सूक्त में जेष्ठ ब्रह्म का उल्लेख है । ज्येष्ठ का प्रचलित अर्थ 'वय ज्येष्ठ' उम्र में बड़ा माना जाता है; किन्तु इसका अर्थ
गणष भी होता है । ज्येष्ठ ब्रह्म के यारे में विचारकों की दो अवधारणाएँ मिलती है । एक पान्यता यह है कि ज्येष्ठों पें सबसे
ब्रह्म ही है, अन्य उससे कमिष्ठ छोटे हैं । दूसरी मान्यता वेदान्त के अपर वह्म' और 'परबरह्म' जैसी है । ब्रह्म सम्बोधन बहुतों
के लिए प्रयुक्त होता है, जैसे- अयमात्मा र्न अहं बह्ास्मि अपो से बहा, रकम (यज्ञ) , ब्रहनज्ञान (वेद) , ब्रह्मवर्चस आदि ।
अपर ब्रह्म सृष्टि का उद्घद, पालन एवं संवरणकर्ता है; किन्तु परम व्योम में जहाँ सृष्टि हुई ही नहीं, वहाँ वह परम या ज्येष्ठ बहा
है, ऐसी विद्वग्जनों की अवधारणा है-
२८८२. यो भूतं च भव्यं च सर्व यश्चाधितिष्ठति ।
स्वश्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥९॥
जो भूत, वर्तमान तथा भविष्यत्काल में सबके अधिष्ठाता हैं । जिनका केवल प्रकाशमय स्वरूप रै, हम उस
ज्येष्ठ बरह्म को नमस्कार करते हैं ॥१ ॥
२८८३. स्कम्भेनेमे विष्टभिते द्यौश्च भूमिश्च तिष्ठत: ।
स्कम्भ इदं सर्वमात्मन्वद् यत् प्राणन्निमिषच्च यत् ॥२ ॥
प्राणयुक्त ओर पलक झपकतने वाला (अर्थात् सचे द्रष्ट) , सब आत्मा से युक्त जो यह सर्वाधार है, वही
स्कम्भ यौ और पृथ्वी को स्थिर किए है ॥२ ॥
[ उसे फलक ह्मपताने वाला कहा गया है । फलक झपकाना स्वचालित प्रक्रिया (रिफ्लैक्स एक्शन अदा अध्य कन्ट्रोल्ड
सर्किट) के अन्तर्गत आता है । ब्रह्म की भी सारी क्रियां इमी स्तर की स्वनिय॑श्रित होती हैं । ]