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काण्ड-१० सुक्त- ७ ३३

२८७०. यस्य सुय॑श्च्षु्चद्रमाश्च पुनणेव: ।

अग्नि यश्चक्र आस्यं ९ तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणो नमः ॥३३ ॥

सूर्य तथा पुनःपुनः नया होने वाला (कलाओं के आधार पर) चन्द्रमा जिसके नेत्र है । अग्नि को जिसने अपना

मुख बनाया, उस श्रेष्ठ बह्म को नमस्कार है ॥३३ ॥

२८७९१. यस्य वातः प्राणापानौ चक्षुरड्रिससो5 भवन्‌ ।

दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीस्तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ।३४॥

प्राण ओर अपान जिसके वायु है, अंगिरस्‌ जिसकी आँखें हैं । जिसकी उत्कृष्ट ज्ञापक दिशाँ हैं, उस ज्येष्ठ

(सर्वश्रेष्ठ) ब्रह्म को नमस्कार है ॥३४ ॥

२८७२. स्कम्भो दाधार द्यावापृथिवी उभे इमे स्कम्भो दाधारोर्वश्न्तरिक्षम्‌।

स्कम्भो दाधार प्रदिशः षडुरवीः स्कम्भ इदं विश्व भुवनमा विवेश ॥३५ ॥

द्यावा-पृथिवो एवं विशाल अन्तरिक्ष को स्कम्भ ने धारण कर रखा है । छह उर्वियों और प्रदिशाओ को स्कम्भ

ने हो धारण कर रखा है ओर स्कम्भ ही इस विश्च में प्रविष्ट है ॥३५ ॥

[ उस चेतन या परम व्योम में ही सब समाए हुए है तथा सबके अन्दर थी कही समाया हुआ है । ]

२८७३. यः श्रमात्‌ तपसो जातो लोकान्त्सर्वान्त्समानशे ।

सोमं यश्चक्रे केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३६ ॥

जो श्रमपूर्वक किये गये तप दरार प्रकट होता है तथा समस्त लोको को व्याप्त किये हुए है, जिसने केवल

सोम को ही प्रवाहित किया है, उस श्रेष्ठ ब्रह्म को नमस्कार है ॥३६ ॥

२८७४. कथं वातो नेलयति कथं न रमते मनः।

किमापः सत्यं प्रे्सन्तीर्नेलयन्ति कदा चन ॥३७॥

वायु क्यो स्थिर नही रहती, मन क्यो नहीं एमता तथा जल किस सत्य को पाने की इच्छा से प्रवाहित है ? ॥

२८७५. महद्‌ यक्षं भुवनस्य मध्ये तपसि क्रान्तं सलिलस्य पृष्ठे ।

तस्मिन्छयन्ते य उ के च देवा वृक्षस्य स्कन्धः परित इव शाखाः ॥३८ ॥

इस विश्व में एक परम पूज्य है, जो सलिल पृष्ट पर कान्तिवान्‌ होता है, जिसे तपः द्वारा प्राप्त किया जा सकता

है । जैसे वृक्ष के तने पर शाखाएँ आधारित रहती हैं, वैसे ही समस्त देव उनका आश्रय लेते हैं ॥३८ ॥

२८७६. यस्मै हस्ताभ्यां पादाभ्यां वाचा श्रोत्रेण चक्षुषा । यस्मै देवा: सदा बलि

प्रयच्छन्ति विपितेऽमितं स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥३९॥ .

देवता जिनके लिए हाथ, पैर, वाणी, कान एवं नेत्रों से सतत बलि (आहति) प्रदान करते रहते है । देव जिनके

विमति शरीर में अमित उपहार प्रदान करते रहते हैं । उस स्कम्भ को बताएँ , वह कौन सा स्कम्भ है ॥३९ ॥

२८७७. अप तस्य हतं तपो व्यावृत्तः स पाप्मना ।

सर्वाणि तस्मिज्ज्योतीषि यानि त्रीणि प्रजापतौ ॥४० ॥

(जो स्कम्भ को जान लेता है) उसका अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है । वह पाप से निवृत्त हो जाता दै । जो

तीन ज्योतियाँ प्रजापति में होती हैं, वह उसे प्राप्त हो जाती हैं ॥४० ॥

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