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उत्तरपर्व ]

* शान्तिक एवं पौष्टिक कर्मों तथा नवप्रह-झान्तिकी विधिका वर्णन +

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एवं श्रुतियोंद्राण आदिष्ट इस ग्रहशान्तिका संक्षिप्त वर्णन कर

रहा हूँ। इसके लिये ज्योतिषीद्वारा बत्य गये शुभ मुहूर्तमें

ब्राह्मणद्वारा खस्तिवाचन कराकर ग्रहों एवं ग्हाधिदेवॉकी

स्थापना करके हवन प्रारम्भ करना चाहिये। पुराणों एवं

श्रुतियोंके ज्ञाता विद्वानोने तीन प्रकारके ग्रहयज्ञ यतलाये हैं।

पहला दस हजार आहुतियोंका अयुतहोम, उससे बढ़कर दूसरा

एक लाख आहुतियोंका लक्षहोम तथा सम्पूर्ण कामनाओका

फल प्रदान करनेवाला तीसरा एक करोड़ आहुतियोका कोटि-

होम होता है। दस हजार आहुतियोंवाला ग्रहयज्ञ नवप्रहयज्ञ

कहलाता है। इसको विधि जो पुराणों एवं श्रुतियॉमें बतलायी

गयी है, प्रथम मैं उसका वर्णन कर रहा हूँ। (यजमान

मण्डपनिर्माणके बाद) हवनकुण्डकी पूर्वोत्तर-दिशामें स्थापनाके

लिये एक वेदीका निर्माण कराये, जो दो बीता लम्बी-चौड़ी,

एक बीता ऊँची, दो परिधियोसे सुशोभित और चौकोर हो ।

उसका मुख उत्तरकी ओर हो । पुनः कुण्डम अग्रिकी स्थापना

करके उस वेदीपर देवताओंका आवाहन करे । इस प्रकार

उसपर बत्तीस देवताओंकी स्थापना करनी चाहिये।

सूर्य, चन्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु,

केतु--ये लोगोकि हितकारी ग्रह कहे गये हैं। इन ग्रहोंकी

लोहेसे बनानी चाहिये। श्वेत चावलोंद्रारा वेदीके मध्यमे

कोणपर बुधकी, पूर्वमें शुक्रकी, दक्षिण-पूर्वकोणपर चन्द्रमाको,

पश्चिमे शनिकी, पश्चिम-दक्षिणकोणपर राहुकी और

पश्चिमोत्तस्कोणपर केतुकी स्थापना करनी चाहिये। इन सभी

ग्रहो सूर्यके शिय, चन्द्रमाके पार्वती, मंगलके स्कन्द, बुधके

भगवान्‌ विष्णु, बृहस्पतिके ब्रह्मा, शुक्रके इन्द्र, शनैक्षस्के यम,

राहके काल और केतुके चित्रगुप्त अधिदेवता माने गये हैं।

अग्नि, जल, पृथ्वी, विष्णु, इन्द्र, सौवर्णं देवता, प्रजापति, सर्प

और ब्रह्मा--ये सभी क्रमशः प्रत्यधिदेवता हैं। इनके अति-

रिक्त विनायक, दुर्गा, वायु, आकाश, सावित्री, लक्ष्मी तथा

उमाको उनके पतिदेवताओंके साथ और अश्विनीकुमारोंका भी

व्याइतियोंके उच्चारणपूर्वक आवाहन करना चाहिये। उस्र

समय मंगलसहित सूर्यको लाल वर्णका, चन्द्रमा और शुक्रको

शेत वर्णका, बुध और वृहस्पतिकरे पीत वर्णका, शनि और

राहुको कृष्ण वर्णका तथा केतुको धूप्र वर्णका जानना और

ध्यान करना चाहिये । बुद्धिमान्‌ यज्ञकर्ता जो प्रह जिस रेगका

हो, उसे उसी श्गका वख और फूल समर्पित करे, सुगन्धित

धूप दे। पुनः फल, पुष्प आदिके साथ सूर्यको गुड़ और

चावलसे बने हुए अन्न (खीर) का, चदद्रमाको भी और दूधसे

बने हुए पदार्थका, मंगलको गोझियाका, बुधक क्षीरषष्टिक

(दूधमें पके हुए साठीके चावल)का, बृहस्पतिको दही-

भातका, शुक्रको घी-भातका, शनैश्नरकों खिचड़ीका, राहुको

अजनश्ृृगी नामक लताके फलके गूदाका और केतुको विचित्र

रंगवाले भातका नैवेद्य अर्पण करके सभी प्रकारके भक्ष्य

पदार्थद्रा पूजन करे ।

बेदीके पूरयोततरकोणपर एक छिद्ररहिते कलशकी स्थापना

करे, उसे दही और अक्षतसे सुशोभित, आश्रके पल्लवसे

आच्छदित और दो यस्ते परिवेष्टित करके उसके निकट

फल रख दे। उसमें पदर डाल दे और उसे पञ्चभङ्ग

(पीपल, बरगद, पाकड़, गूलर और आमके पल्लव) से युक्त

कर दे। उसपर वरुण, गङ्गा आदि नदियों, सभी समुद्रो और

सरोवयोक आवाहन तथा स्थापन करे। राजेद्र | धर्मज्ञ

पुरोहितको चाहिये कि वह हाथीसार, घुड़शाल, चौराहे,

ब्रिमवट, नदीके संगम, कुण्ड और गोशालाकी मिट्टी लाकर

उसे सर्वौषधिमिश्रित जलसे अभिषिक्त कर यजमानके स्लानके

लिये वहाँ प्रस्तुत कर दे तथा “यजमानके पापको नष्ट

करनेवाले सभी समुद्र, नदी, नद्‌, बादल और सयेवर यहाँ

परे" पेखा कहकर इन देवताओंका आवाहन करे । तत्पश्चात्‌

घी, जौ, चावल, तिल आदिसे हवन प्रारम्भ करे । मदार,

पलाश, खैर, चिचिंडा, पीपल, गूलर, शमी, दूब और

कुश- ये क्रमशः नवों ग्रहोंकी समिधा है । इनमें प्रत्येक

ग्रहके लिये मधु, घी और दही अथवा पायससे युक्त एक सौ

आठ अथवा अट्टवाईस आहुतियाँ प्रदान करनी चाहिये ।

बुद्धिमान्‌ पुरुषको सदा सभी क्मेमिं अँगूठेके सिरेसे तर्जनीके

सिरेतककी मापवाली तथा बरोह, शाखा और पत्तोंसे रहित

और अधर्वपरिशिष्ट, याज्ञयल्क्वस्मृति १।२९५--३०८, वृद्धपाराशर ११, फ्यपुराण, सृक्षिखष्ड ८२--८६, नास्दपुराण १।५१, मल्यपुण्न,

अग्रिपुशण २६४--२७४ आदियें भी प्राप्त है।

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